*****सन्देश*****मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता है कि डॉ. योगेश दुबे की सृजनात्मक प्रतिभा का प्रस्फुटन गिरमिटिया मजदूरों के विस्थापन की पीड़ा पर आधारित उनकी औपन्यासिक कृति “परिंदा” में अत्यंत मर्मस्पर्शी रूप से अभिव्यक्त हुआ है। उपन्यासों की सैद्धांतिकी पर विचार करने वाले महत्वपूर्ण लेखक-चिंतक रॉल्फ फॉक्स ने अपनी पुस्तक “उपन्यास एवं लोकजीवन” में उपन्यासों के उदय का संबंध औद्योगिकरण तथा उसके फलस्वरूप हुए मध्यवर्ग के उभार के साथ जोड़ा है। गिरमिटिया मजदूरों के विस्थापन की पीड़ा का भी गहरा संबंध औद्योगिक क्रांति के साथ ही है। भारत से गिरमिटिया पुरूष मजदूरों के प्रवासन की शुरूआत कैरेबियाई क्षेत्र में ब्रिटिशों द्वारा स्थापित चीनी एवं रबड़ के बागानों को चलाने के लिए की गई थी जिन्हें 10 वर्ष से पूर्व अपने वतन लौटने की इजाजत नहीं थी। वास्तव में यह अग्रीमेन्ट ‘गिरीमेन्ट’ हुआ जो प्रवासी मजदूरों की बोली में कालान्तर में ‘गिरमिटिया’ में परिवर्तित हो गया। ब्रिटिश इतिहासकार ह्यायुग टिंकर ने इसे “एक नए प्रकार की गुलामी” के रूप में परिभाषित किया है। भारत से जो भी मजदूर मॉरीशस सूरीनाम फिजी गुयाना त्रिनिदाद सहित जितने भी देशों में भेजे गए वहाँ वे अपने साथ अपनी संस्कृति को भी भाषा भोजन एवं संगीत के माध्यम से लेकर गए। जब वे इन उपनिवेशों में पहुँचे तो उन्होंने अपनी श्रम शक्ति एवं जीवटता की बदौलत एक अनूठे सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितिकी तंत्र (social-cultural eco system) का निर्माण करते हुए इन उपनिवेशों को पुनर्जीवन प्रदान किया जिसका प्रतिनिधित्व डॉ. योगेश दुबे के उपन्यास “परिंदा” का नायक करता है। मैं इस महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक विषय पर औपन्यासिक-कृति की रचना के लिए लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। -(रमेश पोखरियाल ‘निशंक’)
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