परिसर-परिकथा आज़ादी के बाद के भारतीय विश्वविद्यालयों पर केंद्रित हिंदी के सोलह महत्त्वपूर्ण कहानीकारों की सोलह कहानियों का संकलन है। ये कहानियाँ उच्च शिक्षण संस्थानों के पराभव और पतन की दस्तावेज हैं। संकलन की ज्यदातार कहानियों में ऐसे- ऐसे संदर्भ और प्रसंग दर्ज हैं, जो मूल्यहीनता, स्वार्थपरता, पिछड़ेपन, सामंती मनोवृत्ति, पतनशील और भ्रष्ट गठजोड़ के भयावह सच बताते हैं। इन कहानियों ने जिन विषयों को अपनी चिंता और अंतर्वस्तु बनाया है, उनकी चर्चा गाहे- बगाहे अनौपचारिक रूप से सुनने को मिलती हैं, कभी-कभार खबर भी बन जाती हैं, लेकिन सांस्थानिक और सामूहिक तौर पर लोग इससे बचते हैं। हमारे युग और समाज के अन्य क्षेत्रों में मौजूद जटिलताओं से ये संस्थान भी निरापद नहीं। ज्ञान उत्पादन के इन परिसरों से ख्वाहिश थी कि ये प्रगतिशील चेतना-निर्माण, विवेक युक्त असहमति के साहस, मनुष्यता और न्याय की पक्षधरता वाले नागरिक-निर्माण में महती भूमिका अदा करेंगे, परंतु, भारतीय समाज में व्याप्त तमाम कमजोरियों, दुर्गुणों से संस्थान के तौर पर ये अपने को मुक्त रखने में सफल नहीं हो सके हैं। अपवाद स्वरूप भले ही किसी व्यक्ति या दौर विशेष में भिन्न हालत में दिखते हों। कथाकार-समीक्षक शशांक शुक्ल द्वारा ज्ञान के इन संस्थानों की इन महत्त्वपूर्ण कहानियों को, संपादित कर, एक जिल्द में प्रकाशित करने से इनके विभिन्न आयामों की तरफ विद्वत एवं नागरिक-समाज का ध्यान जाएगा और पर्याप्त विचार-विमर्श होगा, इससे इनकी वास्तविक दशा स्पष्ट दिखेगी और इसमें उचित परिवर्त्तन की दिशा भी। - राजीव रंजन गिरि प्रसिद्ध आलोचक व गांधीवादी चिंतक