ईसा की चौथी सदी में यूनान में एक महान दार्शनिक शिल्पकार कलाकार साहित्यकारवैज्ञानिक और गणितज्ञ हुए हैं जिनका नाम है पाइथागोरस जिन्होंने एक प्रमेय (थ्योरम) प्रतिपादित की थी जिसके अनुसार किसी समकोण त्रिभुज की दोनों भुजाओं पर बने वर्गों का योग उसके कर्ण पर बने वर्ग के बराबर होता है। इससे उन्हें बहुत ख्याति मिली और गणित की अनेक समस्यायों को हल करने में सहायता मिली। आज भी बिना पाइथागोरस की थ्योरम के गणित अधूरा है। इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने जीवन के संदर्भ में प्रेम प्रमेय को सिद्ध करने की कोशिश की है। मनुष्य का जीवन काल एक आधार भुजा है कर्तव्य उस पर लंबवत है और प्रेम कर्ण रूप में साधे हुए है। यानि आयु रूपी आधार और कर्त्तव्य रूपी लंब पर बने वर्गों का योग प्रेम रूपी कर्ण पर बने वर्ग के बराबर होगा। आप यूं समझ लीजिए कि अगर हमें बड़ा जीवन जीना है तो हमें स्वस्थ जीवन शैली अपनानी होगा और स्वस्थ जीवन शैली हमें हमारे कर्तव्यों को ईमानदारी से वहन करने से मिलेगी तभी हमारे जीवन काल में प्रेम का स्पंदन होगा। ऐसा प्रेम जो जीवन के मूल आधार को कर्तव्यों से जोड़ेगा । जितना बड़ा हमारा कर्तव्य होगा उसी अनुपात में हमें प्रेम का फल प्राप्त होगा। प्रेम जीवन की अनिवार्य क्रिया है। बिना प्रेम के कुछ भी संभव नहीं है। प्रेम के रूप अनेक हो सकते हैं परंतु प्रेम की रूह एक है। प्रेम राजा है देना जानता है। प्रेम भिखारी नहीं हो सकता चूंकि प्रेम मांगना नहीं जानता ।प्रेम उम्मीदों से परे है। प्रेम बंधनों से मुक्त है।प्रेम शाश्वत है। प्रेम खुला आकाश है। प्रेम किसी की धरोहर नहीं है। प्रेम बिकाऊ भी नहीं है। प्रेम निराकार है। प्रेम रंगहीन है जैसे रंग में रंगोगे रंग ले लेगा।प्रेम स्वादहीन है जैसी संवेदनाएं डालोगे वैसा ही जायका निकल के आएगा। प्रेम गंधहीन है जैसा महसूस करोगे वैसी ही गंध आएगी। देखा जाय तो प्रेम अपने आप में कुछ भी नहीं है और बहुत कुछ भी। प्रेम हैं तो प्रकृति है। प्रेम है तो संतति है। प्रेम है तो जागृति है। प्रेम है तो अनुभूति है। प्रेम ही पूजा है। प्रेम ही खुदा है। प्रेम के ना ना रूपों से प्रतिपादित हैं मेरी समूची रचनाएं जो आप सभी पाठकों को समर्पित हैं।
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