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About The Book
Description
Author
About the Book: ‘प्रिय-प्रवास’ हिंदी -- खड़ी बोली -- का प्रथम महाकाव्य है जो स्वनाम धन्य महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की अमर कृति है; किंतु कितने लोग जानते हैं कि यह महाकाव्य उस राष्ट्र-भाषा हिंदी का शीश-मुकुट है जिस पर हमें गर्व है! फिर से साहित्य-प्रेमियों को हिंदी साहित्य की जड़ों तक ले चलने के उद्देश्य से इसे संकलित एवं सम्पादित करके प्रकाशित किया गया है। अत्यंत सुमधुर काव्य के रूप में युग-पुरुष श्रीकृष्ण के गोकुल से मथुरा प्रवास और उनके वियोग से व्यथित गोकुल-वासियों की विरह-वेदना का सरस चित्रण इसमें है। वह एक प्रकार से हर प्राणी की वेदना ही है जो वह उस समय अनुभव करता है जब कोई स्वजन प्रवास हेतु जाता है या प्रयाण करता है जो कि संसृति का अपरिहार्य लक्षण ही है। आसक्ति मोह और ममता सब दुःखों का मूल है; ज्ञान दुःखों से मुक्ति का साधन! इस महाआख्यान का यही सार अथच केंद्रीय संदेश समझ में आता है। हिंदी भाषा देखा जाए तो बातूनों की भाषा है; पढ़ने-लिखने वाले उसमें गिने-चुने ही हैं; पुस्तक ख़रीदकर पढ़ने वाले तो उतने भी नहीं! अतएव प्रस्तुत महाकाव्य में कुछ रुचि जाग्रत करने के ध्येय से प्रकाशकीय के रूप में सर्ग-क्रम से थोड़ा विवरण भी दिया गया है। प्रिय-प्रवास की भूमिका एक प्रकार से काव्य-शास्त्र का पूरा विवेचन ही है। अतः बड़ा उपादेय भी है: पाठकों के लिए भी उदीयमान कवियों के लिए भी। इसमें सत्रह सर्ग हैं और गोकुल की एक शाम से शुरू होकर यह कंस द्वारा कृष्ण को मथुरा बुलाए जाने से ब्रज में उत्पन्न मानवीय विक्षोभ का मर्म-स्पर्शी चित्रण है जिसमें आसक्ति मोह प्रणय इत्यादि के कारण विकल होते ब्रजवासियों के समक्ष ज्ञानी उद्धव की विवशता का भी बड़ा सरस चित्रण है; मोह ग्रस्त जन विराग की बात नहीं सुनते!