प्रस्तुत उपन्यास ‘पुरमसिया’ का कथानक बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक से दसवें दशक के प्रारम्भ तक के बीच का है. जिसकी शुरुआत उत्तर भारत के सुदूर ग्रामीण परिवेश से होकर महाराष्ट्र की धरा को चूमती हुए भूटान तक की यात्रा करती है. ये एक निर्धन दलित परिवार की बेटी के जीवन में आए उतार-चढ़ाव की अनोखी दास्तान है. उससे राजनैतिक प्रतिष्ठित सवर्ण परिवार का एक अमीर लड़का प्रेम करने लगता है. जातिगत विषमताओं को झेलने के कारण पुरमसिया समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और सामाजिक वर्जनाओं को ध्वस्त करने का आग्रह करती है. वो इस विषमता को जाति-भेद से थोड़ा ऊपर उठकर समग्रता से देखती है और पाती है कि इस समस्या के लिए जहाँ एक ओर पुरानी व्यवस्था दोषी थी तो दूसरी ओर समाज का एक वर्ग आज भी पूर्व में घटित अस्पृश्यता शोषण और अत्याचारों की घटनाओं को अपने हृदय से चिपटा कर बैठा हुआ है. वो स्वयं ही बराबरी और समानता से विमुख होकर अपनी पुरातन पहचान को जारी रखने में अपना हित समझ रहा है. राजनैतिक दल अपने वोट बैंक की विवशतावश ये भेद छद्म नामों की आड़ में जारी रखना चाहते हैं. पुरमसिया जहाँ एक ओर अपने दुश्मनों से बदला लेती है तो दूसरी ओर पूर्व में सताये गए वर्ग से आग्रह भी करती है कि अब वो वक्त आ गया है जब इसी समाज से सच्ची समानता की आवाज़ उठे और अब वे सत्ता से मिली बैसाखियों को लेने से स्वतः इनकार करना प्रारम्भ करें. आने वाला कल ऐसा हो जिसमें ज्ञान शिक्षा और योग्यता की रोशनी में सभी भारतवासियों परस्पर एक दूसरे को जातियों और धर्मों से ऊपर उठकर एक मनुष्य के रूप में सम्मान दें और तदनुसार व्यवहार करेँ.
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