यों तो कवि स्वभाव से ही उतश्रृंखल होता है जैसा कहा गया है। फिर मैंने अपने को बचाने की कोशिश भी नहीं की। करता भी कैसे? प्रेमाश्रु जिधर ले चला भावना उधर ही चल पड़ी। और कारण तो इसका ये है – जिसे मैं कह देने में अपने को संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। इस रचना को भावना के किस अकुलाहट ने रचा ली पता नहीं। फिर ग्यारह–बारह दिनों में ही इसकी लगातार क्रम से समाप्ति हुई। विभिन्न भावना-बोझिल वर्ण–तूलिका चुक्के से कागज के कोरे पन्नों पर घिस पड़ी और प्रेमाश्रु के अजश्र–प्रवाह को ऐस –तैश कर विचित्र–ढंग से गति–यति के साथ सज्जित –भूषित की। और छोटी सी इस अवधि–काल में प्रेमाश्रु की धारा झोपड़ी के कटे – फटे छिद्रों से महल देखी भविष्य देखी आगे भी बढ़ी।आगे बढ़ती गई। नयनों की नदी का जल अब झोपड़ी–जंगल तक भ्रमण कर चुका था। दुस्सह दुःख का प्रश्रय लिए एवं कामना का अंतिम भेंट लिए। पर प्रेम का मोह उस वेकस के अंतर में ऐसा श्लिष्ट हुआ कि फिर यमक न हुआ वह सांस के अंतिम क्षण तक जल के मोह में आकुल मृगनी की तरह दुःखातप में तपती रही इतना तपी कि आँसू सूख गए। ऐसा सूखा कि बूंद भर भी न रहा। प्रियतम मिलन–पथ की ओर अनुगमन कर अपना मिलन – मंजिल विंदु को प्राप्त कर मुरझाए सुमनों और सूखे अश्रु कणों से हृदयेश को हृदय से अभिसिंचन कर सकी।</br> </br>
प्रस्तुत प्रेमाश्रु में मेरे दिल की भावनाओं का साक्षात्कार हो सका है। प्रेम–विशिख से घायल कोई भी व्यक्तित्व अपने अस्तित्व को खो बैठने से नहीं बचता यदि उसे काम गंध न लगा हो। </br> </br>
सुदृढ़ –प्रेम परस्पर आत्मा के लगाव से होता है। शारीरिक एश्वर्य तो माया के मृग–मरीचिका में भटकाने मात्र के लिए होता है। प्रेम अंधा होता है सही पर देखने की दिव्य–ज्योति होती है। कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। एक दूसरे दिल को टटोल कर समझ सकता है। प्यार की पालकी का माहरा कीयत दूर तक ढों सकता है उसकी सहनशीलता पर इसका निर्णय निर्भर करता है। यह सड़क के किनारे या जंगल के झुरमुटों में नहीं पलता। यह दो पैसों की चीज नहीं –कि हाथों से खरीदी या बेची जा सकती है। वल्कि दो आत्माओं की सहानुभूति एवं संवेदना की प्रतिक्रिया है। जिससे दो आत्माओं के बीच इस तरह की गाठ पड़ती है कि वह आजन्म नहीं खुलत ी।
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