क्या बाजारवाद (पूँजीवाद) तथा साम्यवाद विचारधाराएँ आधुनिक मानव को भीतरी/आन्तरिक सुख दिला सकती हैं? क्या इस आधुनिक भारत के करोड़ों लोग पश्चिमी अवधारणाओं के अनुसार ही जीवन जीने को अभिशप्त हंै क्या भारत की प्रजा के सामने कोई विकल्प नहीं है? भारत के एक युग ऋषि डाॅ. हेड़गेवार और श्री गुरूजी ने इन सवालों इन खतरों को दशकों पहले ही भाँप लिया था और भारतीय परम्पराओं के खजाने में ही इनके उत्तर भी खोज लिये थे उन्होंने व्यष्टि बनाम समष्टि के पाश्चात्य समीकरण को अमानवीय बताया था तथा व्यष्टि एवं समष्टि की एकात्मता से ही मानव की पहचान भी थी। उन्होंने इस पहचान के लिए स्वयं को संघ के रूप में एक दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत की थी। पर हमारे देश की विडंबना उनकी यह खोज उनका दर्शन उचित रूप से आगे न बढ़ सका ऐसा नहीं कि दर्शन आगे नहीं बढ़ा बढ़ा है पर शिखर के परम वैभव तक पहुँचने में समय लग रहा है दोष शायद परिस्थितियों का रहा होगा लेकिन इस शताब्दी 2020 के प्रारम्भ में कुछ सामाजिक व अकादमिक कार्यकर्ताओं ने इस धारा को आगे बढ़ाने का सकल्प लिया। इस समृद्ध को अनुभव रहा कि गहन अनुसन्धान एवं व्यावहारिक-परियोजनाओं का सूत्रपात करने से ही हमें आगे बढ़ाया जा सकता है इसी विचार व अनुभव से उत्पत्ति हुई राष्ट्रमंथन की संघ के विभिन्न आयामों व पहलुओं पर नियमित परिचर्चाओं व विभिन्न प्रकाशन जैसे गतव्य सृजन राष्ट्रमंथन एकात्म मानव दर्शन विश्व गुरू भारत एक सोच समरसता के माध्यम से ही वातावरण बना और उसके परिणाम सामने आने लगे तथा संघ का दर्शन व विभिन्न हिन्दूत्व के आयाम पर देश में वैचारिक बहस को मुख्यधारा का अहम् हिस्सा बन गया I
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