जवाहर लाल जलज केन और केदार की धरती के अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने कवि होने की सरोकारपूर्ण शर्तों का ईमानदारी से निर्वहन किया है। केदारनाथ अग्रवाल की शिष्य परम्परा का यह कवि अपने जनपद और जन का कवि है। बाँदा की भाषा में बाँदा के सांस्कृतिक बिम्ब व सामाजिक संरचनाओं का कविताकरण करने वाले जलज उन प्रगतिशीलों में नहीं हैं जो कविता में नारेबाजी और चीख का उपरला प्रदर्शन करते हैं और व्यवहारिकता में विचारधारा के आवरण से आवेष्ठित छद्म प्रतिक्रियावादी नैतिकता के संवाहक बन जाते हैं। इस कविता संग्रह के माध्यम से यह सन्देश देने में बेतरह सफल रहे कि मेरी काव्य यात्रा की इस नयी पारी का उत्स वही ध्वनि है वही शब्द हैं जिनका उदघोष बाबू केदारनाथ अग्रवाल ने किया था। जवाहर लाल जलज ने केदार की लोकधर्मी परम्परा को पुनः पदस्थ किया और नये समय के नये मापदण्डों के अनुरूप तमाम वैचारिक निष्कर्षों व यथार्थ की तटस्थ मुद्रा को कविता में दर्ज किया। लेखक जीवन के यथार्थ से कभी भयभीत नही होता वह अपनी आसक्ति से ही उम्मीदों का विपुल संसार रच लेता है। जलज की कविता भी हताशा और निराशा का विधान नहीं करती वह व्यवस्था और वैश्विक संकटों के बरक्स परिपक्व उम्मीद का सृजन करती है। यही जलज की कविता की मौलिकता है व विशिष्टता है। - उमाशंकर सिंह परमार
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