प्रकाशकीय प्रस्तुत नाटक की आधार भूमि बुंदेलखण्ड क्षेत्र में प्रचलित एक लोककथा है। इस कथा का शीर्षक है- राजा बुकरकना। यही शीर्षक इस नाटक के निमित्त लिया गयाहै। किन्तु उसके आशयों का विस्तार व्यापक है। संक्षिप्त कथा का सारांश इस तरह है। एक राजा है जिसके कान बकरों के कान जैसे हैं। वह अपने कानों को सदैव पगड़ी से ढंके रहता है। कानों-कान यह किसी को खबर नहीं है कि राजा के कान बकरे जैसे है। इस रहस्य को केवल हज्जाम जानता हैं जो राजा के बाल काटता है। राजा ने उसको इतना डराया धमकाया है कि वह इस सत्य को किसी पर प्रकट नहीं कर सकता। उसे अनकहे रहने पर चैन नहीं मिलता है इसलिए एक पेड़ से इस रहस्य की बात कह देता है। संयोग से उस पेड़ की लकड़ी से कुछ वाद्य यंत्र बनते हैं। जब ये वाद्ययंत्र राजा के दरबार में बजाये जाते हैं तब उनसे जो सुर निकलता है वह मानो कहता है कि राजा के कान बकरे के हैं। राजा हज्जाम पर क्रोधित होता है और उसे फांसी की सजा सुना देता है।
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