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Description
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प्रोडक्ट डिस्क्रिप्शन पौराणिक उपन्यास मानवीय गुणों की चर्मोत्कर्ष गाथा : राम बाल्मीकि रामायण की मूल प्रासंगिक घटनाओं को आधार बनाकर राम के जीवन चरित्र को उद्घाटित एवं विश्लेषित करने वाली एक औपन्यासिक रचना है। वैचारिक मनोवैज्ञानिक धार्मिक एवं समसमायिकता के मूल सिद्धांतों के आधार पर विभिन्न संवादों और चर्चाओं के माध्यम से इस कृति में रामयण की अनेक और महत्वपूर्ण घटनाओं को पुनः नये सिरे से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास की मुख्य विशेषता इसके तार्किक संवादों नवीन प्रस्तुतिकरण और विश्लेषणात्मकता है। जो पाठक को राम के जीवन को एक अलग दृष्टि से जानने और समझने के लिए प्रेरित करती है और मस्तिष्क में उभरे कई प्रश्नों के उत्तर भी देती है जैसे कि राम की मानवीय जीवन यात्रा कैसे ईश्वरत्व तक पहुँच गई। कालखंड और उत्पन्न परिस्थितियाँ के मध्य स्थापित आदर्श मानवीय जीवन और उसके नैतिक मूल्यों को कैसे प्रभावित करते हैं? आदि... इस कृति में श्रीराम एक सहज और मर्यादित मानवीय जीवन जीते हुए केवल मर्यादापुरुषोत्तम ही नहीं बल्कि एक ऐसे नायक बनकर उभरते हैं जो उपदेश नहीं देता और न आदेश बल्कि अपने कठोर निर्णयों त्याग और पुरुषार्थ के द्वारा उच्चादर्शों और मानवीय मूल्यों को अपनी जीवनशैली में शामिल किया और स्वयं आदर्श स्थापित किये। श्रीराम पूर्ण रूप से समर्थ होते हुए भी अयोध्या के राज्य को ऐसे त्याग देते हैं जैसे उनके लिए उसका अस्तित्व नगण्य हो और वे यहीं नहीं रुके बल्कि लंका और किष्किंधा जीतकर भी उन्होंने सिंहासन की चाह नहीं की। उनके लिये लोक और लोकमत जितना महत्वपूर्ण था उतना उनके लिए कुछ और नहीं था। वे सदैव ही अपने निजी सुखों को छोड़कर केवल लोक के लिए और मानवीय गुणों को चर्मोत्कर्ष तक ले जाने के लिए जिये। इसीलिए वे सहज मानवीय जीवन को ईश्वरीय बनाने में सफल रहे। इस उपन्यास का कथाक्रम राम लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न के शिक्षा पूर्ण कर अयोध्या लौटने की चर्चा से आरंभ होता है और विभिन्न प्रासंगिक घटनाओं जैसे- राम जन्म विवाह वनवास सुग्रीव मित्रता वाली वध रामसेतु निर्माण लंका युद्ध अग्नि परीक्षा अहिल्या मुक्ति आदि महत्वपूर्ण घटनाओं का चित्रण विभिन्न बिन्दुओं को विश्लेषित कर किया गया है। साथ साथ राम एवं अन्य अयोध्या कुमारों के कुछ अन्य संयुक्त अभियान राज्य व्यवस्था सुरक्षा कानून व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना आदि कार्य भी इसके कथाक्रम को गति देते हैं। उस समय के विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों रहन सहन और जीवन से गुजरते हुए ये कृति रावण विजय के पश्चात अयोध्या बापसी और श्री राम के राजतिलक के दौरान उनके उस तार्किक और दूरदर्शिता से परिपूर्ण उद्बोधन के साथ ही अंत की ओर बढ़ जाती है जिसमें वे अपने मंत्रिमंडल युवराज पद अयोध्या की पटरानी की घोषणा के अतिरिक्त भविष्य की योजनाओं के बारे में बताते हैं और रामराज्य की नींव रखते हैं।