किसी भी काल में एक साथ अनेक आवाज़ें मौजूद रहती हैं लेकिन कोई ज़रूरी नहीं उसमें से हर आवाज़ ‘समकाल की आवाज़’ हो। समकाल की आवाज़ उसी आवाज़ को कहा जा सकता है जो अपने समय और समाज को सही रूप में प्रतिबिंबित करने के साथ-साथ उसे आगे की ओर ले जाती हो अर्थात आधुनिक जीवन मूल्यों की वाहक और वैज्ञानिक चेतना से लैस हो। साथ ही हाशिये में पड़ी धाराओं को भी गहराई से अभिव्यक्त करती हो विशेष रूप से उन आवाज़ों को जिन्हें मुख्यधारा की आवाज़ों के शोर में बहुत कम सुना या फिर अनसुना कर दिया जाता है। ऐसी आवाज़ वर्ग जाति धर्म लिंग क्षेत्र जैसे विभाजनों से ऊपर सत्ता प्रतिष्ठानों सत्ता के केंद्रों शहर-महानगर के अभिजात्य इलाकों से दूर गाँवों कस्बों जनपदों में बसे लोक का प्रतिनिधित्व करती है। समकाल की आवाज़ अपने समय व समाज के आभासी यथार्थ को ही नहीं दिखाती है बल्कि उसके सारतत्व तक ले जाती है और मानवीय संवेदनाओं का विस्तार करती है। उस आवाज़ में किसी तरह का तामझाम या दिखावा नहीं होता है वह पहाड़ी नदी की तरह पारदर्शी होती है। समकाल की आवाज़ हमारे समय के साहित्य संगीत कला सिनेमा राजनीति के माध्यम से सुनी जाती है। समकालीन साहित्य इसका सबसे बड़ा जरिया है। हम इस शृंखला के माध्यम से साहित्य में मौजूद आवाज़ को पकड़ने और सामने लाने की एक छोटी-सी कोशिश कर रहे हैं।
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