Ranendra Ke Upnyason Me Aadivasi Vimarsh (आदिवासी विमर्श)


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About The Book

रणेंद्र के उपन्यासों में हम दुश्मन -वर्गों के बीच संघर्ष को एक विकट बौद्धिक संघर्ष के रूप में भी खुलता पाते हैं. ग्लोबल गाँव के देवता में कुछ कम और श्गायब होता देश में अधिक. ग्लोबल गाँव के देवता में संस्कृत में आनर्स रुमझुम और एम्. ए. कर रही ललिता आदिवासी समाज के आवयविक बुद्धिजीवी के रूप में विकसित होते हैं ( ग्राम्शी के दिए अर्थ में ) और शहीद होते हैं. उपन्यास जिन दो वाक्यों से समाप्त होता है वे हैं राजधानी यूनिवर्सिटी हॉस्टल से सुनील असुर अपने साथियों के साथ कोयलबीघा पाट के लिए निकल रहा है. लड़ाई की बागडोर अब उसे सम्हालनी थी. सुनील को भी अब यूनिवर्सिटी से निकालकर जीवन-संग्राम की पाठशाला में संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता की भूमिका में ढलते हुए अपने भीतर के लोहे को मारक आकार देना है. इस उपन्यास में डा. रामकुमार और कथावाचक दो ऐसे बुद्धिजीवी पात्र हैं जो आदिवासी समुदाय के नहीं हैं लेकिन उनके संघर्ष के सहयात्री हैं. दुशमन तबके की कुछ चालाकियां ऐसी होती है जिन्हें पीड़ित समाज के बहुत अनुभवी समझदार और परिपक्व लोग भी श्एक्सपोज़ के अभाव में भांप नहीं पाते. यहाँ दुश्मन तबके को भीतर से जानने वाले विभीषण पात्र पीड़ितों के संघर्ष के मददगार बनते हैं. इस उपन्यास में शिवदास बाबा के छल-छंद में फंसे लालचन असुर जैसे अनुभवी व्यक्ति और बाबा की असलियत को भांपने-बतलानेवाले डा. रामकुमार अन्य सन्दर्भों के अलावा. इस मामले में भी संघर्ष के व्यापक परिप्रेक्ष्य में एक दूसरे के पूरक हैं. : प्रो. प्रणय कृष्ण (प्रख्यात आलोचक)
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