रंग प्रहरी उपन्यास का नायक रंगमंच का वह चौकीदार है जो जी-जान से चाहता है कि जनहित में थियेटर-कर्म की सांसों पर कोई अवरोध न आने पाये। चंद बड़े शहरों को छोड़कर छोटे शहरों कस्बों और गाँवों में होने वाले नाटक-नौटंकी अब बीते दिनों की कहानी बन चुकी है। टेलीविजन मोबाइल इंटरनेट ने तो दर्शकों को रंगमंच से दूर किया ही रही सही कसर वेबसीरिज और राजनीतिक क्षुद्रता ने पूरी कर दी। अब तो मल्टीप्लेक्स पर भी खतरों के बादल घिर गये हैं। रंग परंपरा के कुछ बचे हुए प्रतिबद्ध रंगकर्मी रंगमंच को जीवित रखने की कोशिश भी करें तो राजनीति के गिद्ध चोंच मारकर उसे भकोस जाने के लिए उद्धत हैं। इस उपन्यास में ऐसे ही कुछ विलक्षण तेजस्वी अभिनय-मर्मज्ञ संभाषण-दक्ष कलाकार राजनीति के एक क्रूर व खोटे मोहरे के हत्थे चढ़ जाते हैं। एक जमाने से साहित्य-संस्कृति का केन्द्र बना हुआ जिस रंगालय को इन सबों ने सहेज कर रखे थे उसे जबरन मुख्यमंत्री का दामाद चुनाव लड़ने का अखाड़ा बनाकर बाहुबल से जबरन कब्जा लेता है। इसके खिलाफ किसी भी अनशन हड़ताल व सत्याग्रह का नतीजा जानलेवा हमला में तब्दील हो जाता है। उपन्यासकार जयनंदन ने ‘रंगप्रहरी’ में अभिनय को अपना मिशन बना लेने वाले कलाकारों की अंतिम सांस तक संघर्ष करने की जीवटता को रेखांकित किया है जो तमाम राजनीतिक प्रशासनिक और अदालती बर्बरता के खिलाफ लड़कर भी रंगकर्म को जीवित रखने के संकल्प से भरे रहते हैं। लेखक ने अपने कथा-प्रवाह में यह भी दर्ज किया है कि आज के समय में बिना किसी जैक सीढ़ी या गॉडफादर के अपनी प्रतिभा और तेजस्विता को साबित करना एक मुश्किल कवायद है। जयनंदन ने इस उपन्यास में प्रेम परिवार और दोस्ती के वितान को जिन चमकदार धागों से बुना है वे उनके अनुभव सिद्ध किस्सागोई के आस्वाद को नयी ऊँचाई देते हैं।
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