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About The Book
Description
Author
आर्यावर्त के एक श्रेष्ठ योद्धा के प्रतिशोध और न्याय के संघर्ष की कथा कर्तव्य बाल्यकाल से बस यही बताया गया कि एकचक्रनगरी का राजकुमार सुर्जन होने के नाते मेरा कर्तव्य क्या है। पिता के प्रति निष्ठावान रहकर हर कर्तव्य निभाने का प्रयास किया फिर भी मुझे आसुरी अंश से श्रापित बताकर सदैव ही महल की चार दीवारियों में कैद रखा गया। और फिर एक दिन ऐसा आया जब मुझे अपनी ही माता का हत्यारा बताकर प्रजा द्वारा अपमानित किया गया मातृभूमि से निष्काषित किया गया। ऐसे में जिन असुरों ने मेरा साथ दिया मुझे अपनाया मुझे सम्मान दिया तो सुर्जन से असुरेश्वर दुर्भीक्ष बनकर पातालपुरी के सिंहासन को स्वीकार कर उनके उत्थान का प्रण लेकर क्या भूल की मैंने? कहते हैं एक वैरागी ऋषि के वरदान से जन्म लेने के कारण मुझमें आसुरी अंश होने के साथ साथ वैराग्य भाव भी था। राज्य या सत्ता का लालच नहीं था मुझे किन्तु बड़े से बड़ा सिद्ध ऋषि भी अपने अपमान को क्षमा नहीं कर सकता मैं तो फिर भी अर्धअसुर कहा जाता था। तो हाँ ! पिता के जीवित रहते स्वयं को नियंत्रण में रखा किन्तु उसके स्वर्गवास के उपरान्त छेड़ दिया मैंने अपना प्रतिशोध युद्ध ! कर दिया एकचक्रनगरी पर आक्रमण किन्तु क्या विजय के उपरांत किसी निर्दोष के प्राण लिए मैंने ? नहीं। फिर भी सारे विनाश का दोष मुझपर मढ़कर मुझे ही आरोपी बनाया और वर्षों की श्रापित सुप्तावस्था में भेज दिया। जब आँखें खुली तो मैं अपना सबकुछ खो चुका था। पातालपुरी का शासन वापस मिला मेरे नाम का भय समग्र संसार में फैलने लगा किन्तु जीवन वर्षों तक रिक्त सा रहा। फिर एक दिन अकस्मात ही युद्ध में चंद्रवंशी युवराज सर्वदमन के सामने आते ही मेरे सारे घाव हरे हो गये। किन्तु वहाँ भी अपना रौद्र रूप धारण करने से पूर्व ही एक स्त्री मेरे सामने आ गयी और मुझे अपने शस्त्रों का त्याग करने पर विवश होना पड़ा। ह्रदय में धधकती प्रतिशोध की अग्नि लिए मुझे पुनः पीछे हटना पड़ा। क्योंकि वो स्त्री जो सर्वदमन के रक्षण को सामने आयी उसके समक्ष मैं शस्त्र तो क्या दृष्टि उठाने योग्य भी नहीं था। क्या इस अवरोध को पार कर कभी मैं अपने हृदय में धधक रही प्रतिशोध की अग्नि को शांत कर सकूँगा ? बस इसी प्रश्न के इर्द गिर्द घूमती है मेरे जीवन की ये गाथा।