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About The Book
Description
Author
अधिनायकवादी शासन में आपात काल एक बार आ जाने के बाद जाने का नाम नहीं लेता : ‘राष्ट्र पर ख़तरा’ कभी ख़त्म ही नहीं होता : कोविड के लौट आने का ख़तरा सीमा पार ‘दुश्मन’ का ख़तरा घुसपैठियों-शरणार्थी ‘परायों’ का ख़तरा राष्ट्र के अंदर के ‘पराये दुश्मनों’ : माइग्रेंट अश्वेत नस्लीय धार्मिक अल्पसंख्यकों का ख़तरा दलित-दमित राष्ट्रीयताओं से ख़तरा इस्लामिक आतंकवाद से ख़तरा आंतरिक आतंकवाद (जैसे भारत में नक्सलवाद) और उसके लिबरल-प्रगतिशील सहयोगियों-समर्थकों (भारत में ‘अर्बन नक्सल’ ) से ख़तरा...... अनंत है ‘राष्ट्र पर ख़तरे’ की आपात स्थिति का विस्तार ! अधिनायक और राष्ट्र की पहचान एक कर के अधिनायक से असहमति-विरोध-आक्रोश की हर आवाज़ “राष्ट्र के अस्तित्व के लिए ख़तरा’ घोषित कर दी जाती है ! यह रास्ता फ़ासीवाद की ओर जाता है । फ़ासीवाद का रास्ता मशीन मरघट मौत जड़ता और भविष्य विहीन नैराश्य के मातम का रास्ता है । जीवन के रास्ते - मनुष्य और मनुष्यता के रास्ते पर कहीं ज़्यादा मुश्किलें कहीं ज़्यादा ख़तरे हैं मगर इसी के साथ कहीं ज़्यादा ईमानदारी और कहीं ज़्यादा उम्मीद भी है ।