“पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति” (अथर्ववेद) अर्थात देव (परमात्मा) के काव्य (वेद) को देखो यह न मरता है न जीर्ण होता है। महाप्रलय के पश्चात जब प्रवाह रूप से सृष्टि का पुनर्विकास होता है अव्यक्त जगत व्यक्त होने लगता है वैदिक काव्य स्वतः उच्चरित होने लगते हैं। सार्थक व सारगर्भित शब्द-समायोजन रस छंद अलंकार पद-लालित्य ध्वनि यति गति आदि काव्य के अभिन्न अंग हैं। लेकिन यह सब बातें मैं यहाँ क्यों कह रहा हूँ? यहाँ इन सबका औचित्य आखिर क्या है? जी इनका औचित्य इतना भर है कि प्रथम दृष्टया जब मैंने “रिक्त-प्रवाह” की पांडुलिपि का अवलोकन किया तो प्रथम वाक्य जो मानस में तरंगित हुआ वो यही है। लौकिक जगत में भी श्री जयशंकर प्रसाद जी का कथन है “ काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह श्रेयमयी रचनात्मक काव्य-धारा है। “ और इन सब मानदंडों को समाहित किए हुये जो धारा सीधे आत्मा से निर्झर की तरह प्रवाहित हुई है वह है- “रिक्त-प्रवाह”- श्री संजीव शुक्ला ‘रिक्त’ की कविताओं का अनुपम संग्रहणीय संकलन। ऐसी कवितायें जिनके बारे में स्वयं कवि कह रहा है- “ जब बैनन द्वार किवार लगे तब नैनन धार बही कविता “- ऐसी ही श्रेयमयी आत्मानुभूत काव्य-धारा से प्रवाहित होते हुये विविध छंदों की छटा छिटक कर “रिक्त-प्रवाह” की विशिष्टता को अनघ आयाम से न केवल अलंकृत करती है अपितु इसे दुर्लभ काव्य-साधना की श्रेणी में स्थापित भी करती है। शब्दों के बारे में मैं क्या कहूँ? कवि स्वयं कहता है- “ शब्दों के मोती है भावों का सागर है” – यह अक्षरशः सत्य भी है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम हो तद्भव हो हिन्दी के क्लिष्ट संग ललित सरस सुगम शब्द हो या आंचलिक माधुर्य-मुखरित शब्दों का संयोजन या फिर उर्दू शब्दों की मिठास। इन सबका एक पांडित्यपूर्ण प्रतिदर्श इस संकलन में उपस्थित है जो निःसन्देह नई पीढ़ी के लिए अनुकरणीय है। निर्बंध मुक्त काव्य सृजन के युग में भावों की भागीरथी को आत्मसात करते हुये विचलनहीन निरंतर छंद-प्रवाह दुर्मिल है। किंतु ऐसे युग में कवि-शिखर-सौरभ श्री संजीव शुक्ला न केवल अपने शब्द-सीमा व भावों से सुविज्ञ हैं अपितु एक सचेतक की भी भूमिका निर्वहन का प्रयास करते हैं। तभी तो कवि-धर्म के प्रति सजग कवि-मन अनायास बोल उठता है- “कवि हो तो कवि-धर्म निभाओ सोच समझ कर कलम उठाओ”। इस दुरूह सृजन-पथ पर गतिशील रहना अभिनंदनीय है वंदनीय है। वह भी उस व्यक्ति के लिए जो साहित्य में न तो विधिवत शिक्षित-दीक्षित है न ही जिसके व्यवसाय कर्म में पठन-पाठन है। वह व्यक्ति जो स्वयं को रिक्त कहता है लेकिन अंतस में कितने सार समाहित है इसका आकलन आसान नहीं। मैं नहीं जानता वह कौन है? कैसा है?....... आभासी जगत में हुआ मिलाप कब अंतरंग सखापने में परिवर्तित हो गया मुझे स्वयं ज्ञात नहीं। किंतु उसके एक-एक शब्द सार समाहित किए हुये जीवंत होते हैं और यही शब्द-सुरभित जीवंतता कदाचित हमारे सुहृद संबंधो का आधार है। आइये रिक्त जी की शिल्प शैली शब्द-समिधा सम्पूर्ण-सार-सहज रिक्तता का बोध करने के लिए कुछ जानने-समझने के साथ-साथ कुछ सार्थक सीख ग्रहण करने के लिए ‘’ रिक्त-प्रवाह ‘’ के आंतरिक पृष्ठों को पलटते हैं। अशेष शुभकामनाओं के साथ
Piracy-free
Assured Quality
Secure Transactions
Delivery Options
Please enter pincode to check delivery time.
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.