मिस्र की प्राचीन सभ्यता में स्त्रियों की समझ और शक्ति के लिए बड़ा मान था। इस बात के लिए बड़ा आदर था कि वे जन्म देती हैं और शिशु का शारीरिक ही नहीं मानसिक पोषण भी करती हैं। अबोध शिशु धरती पर आने के बाद सबसे पहले वह अपनी जन्मदात्री की गंध पहचानना शुरू करता है उसके संसार की पहचान भी माँ से ही शुरू होती है। उस अबोध का ब्रह्मांड बस माँ में सिमटा रहता है। माँ से बच्चे इस प्रकार जुड़े होते हैं कि जब कभी माँ मारती भी है तो उसे बचाव का आश्रय माँ का आँचल ही दिखता है। अब हम सहज ही उस बालक की कल्पना करें जो अबोध अवस्था में ही अपनी माँ को खो देता है । वह न केवल मातृ विहीन होता है बल्कि उसका बचपन ही उजड़ जाता है। बचपन में जहाँ पिता से कहीं अधिक माँ पर विश्वास और भरोसा होता है मातृ विहीन बालक इस संसार में अपने को अकेला असहाय पाता है । मातृ सुख की यह कमी जीवन भर टीसती है । यह कमी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है। यह कमी जब व्यक्ति के जीवन में कविता के रूप में सामने आती है वह हृदय में उतरती चली जाती है। प्रस्तुत कविता संग्रह रिश्तों के कुरुक्षेत्र में स्त्री अपनी स्मृति-शेष माँ को समर्पित करते हुए उस वेदना का भी अनुभव कर रहा हूँ जो कोई बालक उम्र भर अपनी माँ की आकृति का अनुभव करने को तरसते हुए इस पड़ाव तक की यात्रा की है। इक्कीसवीं शताब्दी में स्त्रियों के साथ जितना न्याय होना चाहिए था स्त्रियाँ बंचित ही है। सामाजिक स्तर दूर की कौड़ी है तो पारिवारिक जीवन में भी स्त्रियाँ अपने अहमियत को साबित करने के लिए जूझ रही हैं। छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से स्त्रियों की दुविधा संघर्ष उपेक्षा प्रताड़ना जैसी परिस्थितियों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश है हमारी पहली कविता संग्रह रिश्तों के कुरुक्षेत्र में स्त्री।
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