Sada-E-Waqt (Ghazal)
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....मैं अकेला था अपने जैसा मेरे आस-पास कोई न था और मैं अकेला रहने का बिलकुल भी अभ्यस्त नहीं था। मेरी समझ में नहीं आरहा था कि अकेला आदमी आख़िर समाज के लिए करे तो क्या करे और कैसे करे ? फ़िर आज से लगभग सात वर्ष पूर्व अचानक मेरे अँधेरे दिमाग में एक रोश्नी चमकी कि शायरी एक ऐसा सामजिक कार्य है जो अके ला इसा ं न भी कर सकता है। और मैंने शायरी की ग्रामर सीखने में लगभग छः माह का समय लगाया और शायरी करने लगा। नतीजा आपके सामने है. - फ़िदा हुसैन
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