मेरे मन में एक और डर उपजने लगा था। शायद उसके मन में भी। डर था भी । है भी । जिस जन्मभूमि से ताल्लुक रखते हैं उसे ऐसे ही तो देव भूमि नहीं कहते । हमारा सच सच नहीं रह जाएगा मगर .....ईजा-बौज्यु का मेरे लिए उठाया कष्ट .....अब तकलीफों में जीना । हमारे कल का सच बन जाएगा । जिस रास्ते उम्र के दौर से वो गुजर रहे हैं उसी से हमें भी गुजरना है । लकड़ी एक सिरे से जलती है तो दूसरे सिरे तक पहुँच जाती है । उनके द्वारा परेशानियों में बहाये आँसुओं का हिसाब देना पड़ सकता है । दुआएँ दवाओं से ज्यादा कारगर साबित होती हैं । उनका दिया शुभ-आशीष ही हमें भविष्य के लिए ताकत देगा । क्योंकि बेल बढ़े तो तना और वंश बढ़े तो जड़ जाग गई ही कहते हैं अपने यहाँ । पहाड़ों में बसी इष्टदेवों की थात हुई । हमारी उनसे जुड़ी परम्परा संस्कृति हुई । विश्वास अटूट ठहरा । उनमें होने वाली पुकार बेकार गई हो ऐसा सुना नहीं । इन परम्पराओं को पुराना आडम्बर ढोंग कहकर कुछ समय तक भूला जा सकता है मगर हमेशा के लिए भुला देना .....इतना आसान .....मुमकिन है ?
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