इस पुस्तक में संकलित साक्षात्कार सामयिक विषयों पर गम्भीर चिन्ताएँ तो हैं ही साथ ही नन्द चतुर्वेदी के साहित्यिक सोच की अभिव्यक्ति भी हैं। वे कविता की परम्परागत बुनावट के साथ-साथ उसकी सामाजिकता और उससे जुड़े सरोकारों को भी जानते-पहचानते थे। ये सम्पूर्ण रूप से नन्द चतुर्वेदी की साहित्यिक चिन्ताओं और उनके सफल-असफल होने की कथा भी हैं। शिक्षा मीडिया नया आर्थिक परिदृश्य जिसमें निजीकरण और वैश्वीकरण शामिल हैं उनकी व्यापक चिन्ताओं का हिस्सा थे। उनको एक दु:ख यह भी था कि राजस्थान के हिन्दी लेखकों को वह सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। वे राजस्थान को उत्तर प्रदेश की मंडी बनाने के खिलाफ थे और बार-बार इस दु:ख का बयान इन साक्षात्कारों में करते हैं। नौ दशकों के लम्बे जीवनकाल में नन्द जी ने कई सामाजिक कालखंडों में अपना जीवन जिया। झालावाड़-उदयपुर का सामन्ती-काल आजादी की लड़ाई और देश-निर्माण के सपने। आजादी के बाद बराबरी का सपना भी टूटा और बहुत बाद के दिनों में उन्हें निजीकरण और वैश्वीकरण के सवालों के उत्तर भी खोजने पड़े। ये साक्षात्कार उनके हर अनुभव का आईना हैं। इस पुस्तक के कई साक्षात्कारकर्ता नन्द जी के साथी सहयोगी कवि और प्रियजन रहे हैं। विदेश और देश के अन्य भागों से आए विद्वज्जनों ने भी उनसे बातचीत की है। इन लम्बे साक्षात्कारों में वे अपने पढऩे-लिखने स्मृतियों और बचपन के दिनों की चर्चा भी करते हैं। पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें शामिल सभी साक्षात्कारों को नन्द जी ने अपने जीवन के आखिरी वर्षों में स्वयं सम्पादित और चयनित किया था। व्यवस्था के पुनर्निर्माण की आशा अब भी बची है क्योंकि ये जो बहुत-से सपने हैं वे काल्पनिक नहीं हैं। वे मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी शर्तें हैं—जैसे मनुष्य की स्वाधीनता जैसे मनुष्य की समता। इनको छोडऩा सम्भव नहीं है। और तब मुझे यह प्रतीत होता है कि चाहे जितने दिन तक चीजें उथल-पुथल होती रहें लेकिन अन्त में समता और स्वाधीनता के प्राप्त हुए बिना मनुष्य बच नहीं पाएगा। —इसी पुस्तक से.
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