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प्रस्तुत कथानक में एक ऐसे ही धर्म गुरू की कल्पना की गई हैं जिनका धर्मगुरू बनना महज एक परिस्थितिवश संयोग होता है किन्तु वह धर्मगुरू अर्थात् मठ का महन्त बनने के बाद लोगों की मठ में धर्म एवं महन्त के रूप में स्वयं में आस्था की शक्ति को मात्र प्रवचन दर्शन प्रसाद भंडारे पूजा पाठ तक सीमित नहीं रखते हैं। अपितु श्रद्धालुओं की अपार आस्था व श्रद्धा की शक्ति का उपयोग करके वह न मात्र सक्रिय अपितु प्रत्यक्ष रूप से देश व प्रदेश की राजनीति में अपनी व अन्य धर्मगुरूओं की उपस्थिति दर्ज कराते हैं और राजनीति के माध्यम से अपने श्रद्धालुओं व आस्था रखने वालों की सरकार से अपेक्षा को न मात्र पूरा करते हैं अपितु अपनी कार्यशैली से धर्म और राजनीति के गठजोड़ के आलोचकों को निःशब्द कर देते हैं।