परिवर्त्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। काव्य गंगा की मनुहारी सतत् लहरें भी भाव-कूलों के मध्य अपने प्रवाह क्रम में इन परिवर्त्तनों से अनछुई कैसे रह पाती? युग युगान्तरीय पारिवेशिक बदलाव साहित्य की हर विधा में अपना प्रभाव सदैव डालता रहा है। हर युग में साहित्य में प्रयोग होते रहे हैं। कविता के सृजन में कवियों के भाव पटल पर युग धर्मिता एवं पारिवेशिक प्रभाव की जीवंतता ही विभिन्न वादों की जननी रही है। कभी भावात्मक प्रवणता प्रमुख रही है तो कभी शैली कभी काव्यानुशासन की प्रमुखता रही हैं तो कभी विचार धारा विशेष अपनी छाप छोड़ गई है। कुछ भी हो काव्य-गंगा की किलकारियां भरती लहरें अपने आयाम को विस्तार प्रदान करते हुए अनवरत प्रवहमान बनी हुई हैं। हाँ यह भी अकाट्य सत्यहै किअनवरत प्रवाहित गंगा की तटीय धारा मध्यस्थ मुख्यधारा-सी ओजस्वीनहीं हो पाती पर जनकार्य में तटीय जल ही समस्त श्रेय ले जाता है। अतः काव्यसंसार में स्वानुभूत पीड़ाजन्य किसी भी काव्य रचना का महत्त्वकम नहीं आंका जा सकता। परन्तु वैचारिक गांभीर्ययुक्त मुख्यमार्गीय धारा के प्रखर ओज को दर किनार करने की सोच भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं हो सकती।
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