समीक्षा के आलोक में स्वयं को पाकर मन में कई तरह के प्रश्न उठ रहे हैं। क्या मैं स्वयं को समीक्षकों की कसौटी पर खरा उतार सकी हूँ या आगे उतार सकूँगी? क्या मैं अपने उन सृहृद पाठकों का ऋण उतार सकूँगी जिन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाया मान-सम्मान स्नेह-दुलार दिया? क्या पाठकों की अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी लेखनी को लगातार माँजती रह पाऊँगी? क्या मेरा लिखना सार्थकता का बोध आगे भी पा सकेगा? अपसंस्कृति के अंधे घटाटोप में क्या लेखकों की साहित्य साधना प्रकाश किरण बनकर उतरती रह सकेगी? चारों ओर फैले उपभोक्ता संस्कृति के मकड़जाल से क्या हम वर्तमान और भावी पीढ़ियों को मुक्त कर सकेंगे? इतिहास साक्षी है कि भारतीय आस्था की संस्कृति ने समाज को सदैव अपसंस्कृति से उबारा है। यह आस्था ही कलम की नोक से सत्य-असत्य का भेद उतारती आयी है। आज जीवन के इस पड़ाव पर हूँ जहाँ बहुत सी बातें बेमानी लगने लगती हैं। जहाँ थकने हारने के दिन सामने होते हैं। पर अपने पाठकों के मन में पलता स्नेह आदर और अभिव्यक्ति की अपेक्षाओं की उनकी प्रेरणा हताश नहीं होने देती। ठोकरें भी सह्य हो जाती हैं। क्योंकि उनसे हम कुछ न कुछ सीखते हैं। बाधाएँ भी उतनी कठिन नहीं लगतीं क्योंकि उन्हें पार करने का अनुभव पास आ जाता है। पाठकों की पसंद प्रेरणा और ऊर्जा देती है। मान अपमान से मन पहले जैसा उन्मथित नहीं होता। जिंदगी एक ठहराव बन जाती है। क्षमा और ममता के अनमोल रत्न अपनी झोली में बच जाते हैं जिन्हें मन केवल लुटाना चाहता है। हमें रिश्तों को निभाना आ जाता है उन रिश्तों को भी जो जोड़ने से अधिक तोड़ते रहे हैं। हमें प्रतिद्वंदी बनकर मुकाबला करना नहीं सबके मन में प्यार की सुरभि बनकर महकना आ जाता है। हमारे लड़खड़ाने पर सँभालने वाले हाथ अपने लगने लगते हैं और अपनों का परायापन बिसरने लगता है। अपेक्षाओं का चुक जाना ही परमानन्द होता है। पर यह साधना अत्यधिक कठिन भी है और सहज भी। उम्र के इस पड़ाव पर अथक आगे चलने की प्रेरणा भी बहुत मूल्यवान है जो संकल्प जगाती है कि अभी निरन्तर चलते-चलते उस मंजिल तक पहुँचना है जिसके आगे कोई राह नहीं रह जाती। केवल आत्मबोध रह जाता है। वह आत्मबोध ही परमेश्वर है मुक्ति है।...
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