Samkaleen Hindi Kavita aur Sampradayikta


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About The Book

इस पुस्तक में कविता की तमाम प्रवृत्तियों का हम क्रमवार अध्ययन करते हुए विभिन्न आयामों को समझते हैं। यह पुस्तक बेहद संवेदनशील लम्हों को संजोती हुयी आगे बढ़ती है। इस पुस्तक में जिस प्रवृत्ति का बेबाकी से खुलासा किया है वह है साम्प्रदायिकता जो हमारे दौर की आज सबसे बड़ी चुनौती है। प्रेमचंद जैसे सुप्रसिद्ध लेखक की भाषा और मुहावरे को आज पुनः पढ़ने और चिंतन करने करते हुए सीखने की जरूरत है। एक लेख में वे कहते हैं- सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है... वह संस्कृति का खोल ओढ़कर सामने आती है। किसी भी धर्म की एकांगी सोच पर मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम कहते हुए कहा- धर्म सताए हुए आदमी की आह है। धर्म के कट्टरवादी स्वरूप एवं सांप्रदायिकता की भीषणता के विभिन्न प्रभावों को समकालीन कविता में बखूबी दर्ज किया गया है। दुनियाभर में कट्टरवाद के खतरों को न केवल हम सबने महसूस किया है बल्कि हम सब किसी-न-किसी रूप में प्रभावित भी हुए हैं। भारत में इन्हीं कट्टरपंथी तत्त्वों द्वारा किए जा रहे सांप्रदायिक प्रचार को कविता में रेखांकित करते हुए साझा संस्कृति की हिमायत भी बखूबी देखी जा सकती है। सांप्रदायिकता विरोधी यह चेतना धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास करती है। जिसका केंद्रीय तत्त्व संविधान प्रदत्त भाईचारा है मानवता है तथा आदमीयत है। समकालीन हिंदी कविता में सांप्रदायिक रंगों की अच्छे से पहचान की गई है वहीं दूसरी ओर सांप्रदायिकता के विरोधस्वरूप सांप्रदायिक सद्भाव एवं मानवीय मूल्यों को सहेजा गया है। इस पुस्तक में सांप्रदायिकता के समाधन की कुछ दिशाएँ सुझाई हैं तथा जूझने की तमाम स्थितियों को हल के रूप में प्रस्तुत किया है।
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