स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता के सर्वाधिक गुणी संपादकों में श्री नारायण दत्त अग्रगण्य हैं। यद्यपि वे मुख्यधारा की पत्रकारिता में कभी सक्रिय नहीं हुए वाचाल प्रवक्ता भी नहीं रहे न उनकी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं; परन्तु हिन्दी के अनेक लब्धप्रतिष्ठ पत्रकारों को उन्होंने पत्रकारिता के गुण सिखाए मर्म की दीक्षा दी। हिन्दी में कई सिद्धहस्त विज्ञान-लेखक तैयार किए। उनकी भाषा और भाव-बोध को तराशा। तथ्य-परीक्षण और संदर्भ संज्ञान का सलीका सिखाया। कोशों से नाता जोड़ने की प्रेरणा दी। विमर्श का व्यापक फलक रचा। सबसे बढ़कर उस संपादकीय आचार्यत्व को जीवंत किया जो पाठकों के प्रति साधक-सी निष्ठा से सजग सचेत रहता था। जिसके विषय चयन और आलेख संपादन का आधार पाठकों को ऐसी जानकारी से परिपूर्ण करना था जो उन्हें बेहतर नागरिक बनाए। उनके ज्ञान का दायरा बढ़ाए। विवेक को जाग्रत करे। बहुधा चिट्ठियों के माध्यम से उनकी यह पाठशाला गतिशील रहती थी। अनौपचारिकता ही इस पाठशाला की सार्थकता की कुंजी थी। ऐसी सीख-सिखावन जो सदैव स्मृति में बसे और लेखनी में उतरती रहे।
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