रस की प्यास आस नहिं औरां प्रेम का मार्ग मस्ती का मार्ग है। होश का नहीं बेहोशी का। खुदी का नहीं बेखुदी का। ध्यान का नहीं लवलीनता का। जागरूकता का नहीं तन्मयता का। यद्यपि प्रेम की जो बेहोशी है उसके अंतर्गृह में होश का दीया जलता है। लेकिन उस होश के दीये के लिए कोई आयोजन नहीं करना होता। वह तो प्रेम का सहज प्रकाश है आयोजना नहीं। यद्यपि प्रेम के मार्ग पर जो बेखुदी है उसमें खुदी तो नहीं होती पर खुदा जरूर होता है। छोटा ‘मैं’ तो मर जाता है विराट ‘मैं’ पैदा होता है। और जिसके जीवन में विराट ‘मैं’ पैदा हो जाए वह छोटे को पकड़े क्यों? वह क्षुद्र का सहारा क्यों ले? जो परमात्मा में डूबने का मजा ले ले वह अहंकार के तिनकों को पकड़े क्यों बचने की चेष्टा क्यों करे? अहंकार बचने की चेष्टा का नाम है। निर-अहंकार अपने को खो देने की कला है। भक्ति विसर्जन है खोने की कला है। और खूब मस्ती आती है भक्ति से। जितना मिटता है भक्त उतनी ही प्याली भरती है। जितना भक्त खाली होता है उतना ही भगवान से आपूर होने लगता है। भक्त खो कर कुछ खोता नहीं भक्त खो कर पाता है। अभागे तो वे हैं जिन्हें भक्ति का स्वाद न लगा क्योंकि वे कमा-कमा कर भी केवल खोते हैं पाते कुछ भी नहीं। भक्त अपने को गंवा कर अपने को पा लेता है। और हम अपने को बचाते-बचाते ही एक दिन मौत के मुंह में समा जाते हैं। हमारी उपलब्धि क्या है? हमारे हाथ खाली हैं। हमारे प्राण खाली हैं। और विरोधाभास ऐसा है कि भरने में ही हम लगे रहे जन्मों-जन्मों तक। भक्त ने यह देख लिया कि भरने से नहीं भरता है। तब उसके हाथ में दूसरा सूत्र आ जाता है कि खाली करने से भरता है। ओशो
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