अजय सोडानी जानते हैं कि देखे हुए को दिखाया कैसे जाए। जैसे कि सफ़र के दौरान अगर एक कैमरा उनके हाथ में है तो एक भीतर भी है जो बाहर के चित्रों को शब्दों की शक्ल में कहीं अंकित करता चलता है। यही कारण है कि उनके यात्रा-वृत्तान्त ख़ासकर जब वे हिमालय के बारे में लिखते हैं सिर्फ़ हमारा ज्ञान नहीं बढ़ाते अनुभूति की सतह पर हमें एक गहरा अनुभव देते हैं। एक समग्र यात्रा-अनुभव जिसमें भूगोल इतिहास परम्परा लोक समकालीन समाज साहित्य आत्मचिंतन प्रकृति-चिन्ता भविष्य-दृष्टि तथा रोमांच सब एकसाथ शामिल होता है। हिमालय को वे सागर नदी देवता पशु आदि चराचर की तरह अपना और हम सबका सहोदर कहते हैं। उसकी विराटता के सम्मुख हमारे अस्तित्व की गौणता का एक विचित्र सजीव लेकिन लोमहर्षक समीकरण बनता है जब उनके जैसा कोई हिमालय प्रेमी हमें गिरिराज के रहस्यों के सफ़र पर लेकर निकलता है। ‘दर्रा दर्रा हिमालय’ और ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ के बाद हिमालय पर यह उनकी तीसरी किताब है। हिमालय जो बकौल उनके पहली ही निगाह में देखने वाले के रक्त में घुलने लगता है उसके अस्तित्व-बोध का अंश हो जाता है। उनके इन सफ़रनामों को पढ़कर भी हमारे साथ कुछ ऐसा ही घटित होता है।
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