गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सान्निध्य में शान्तिनिकेतन के ‘टैगोर स्टडी सर्किल’ के लेखनोद्यत साथियों के साथ गप्पगोष्ठी करती ‘शिवानी’ 1938 में ही सीखे हुए लेखन और कथाकथन के गुर अपनी रचनात्मकता में प्रदर्शित करने लगीं। उनकी कथा गढ़ने के गुरों के साक्ष्य हैं उनके रचनात्मक दस्तावेज जो कहानी उपन्यास लघु उपन्यास संस्मरण रेखाचित्र और यात्रावृत्तांतों के रूप में छपे और खूब बिके। उनकी पैनी दृष्टि सशक्तभाषा विलक्षण स्मृति और घर परिवार गांव समाज राज्य देशप्रदेश की सीमाएँ लाँघ कालजयी चरित्र निर्मित करने की क्षमता उन्हें लोकप्रियता के एवरेस्ट पर बिठा देती है। उनकी संस्कृत बंगाली उर्दू कुमाँऊनी और अंग्रेजी युक्त शब्दावली वर्णन एवं शब्दांकन को कथात्मक प्रवाह प्रदान कर सहजग्राह्य बना देती है। शिवानी जी अपनी लेखनी का प्रयोग सामाजिक समस्याओं पर कुठाराघात करने के लिये भी करती हैं। उनकी नारियाँ उनसी ही पुरुषोन्मुखी किन्तु बन्धनमुक्ति को छटपटाती विद्रोहिणी हैं जो सामाजिक जीवन की उलझीसुलझी गुत्थियों को अपनी विविधता एवं विलक्षण वर्णनात्मक जीवंत शैली से लाखों नारियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बना देती हैं। आभिजात्य वर्ग मध्यम वर्ग गरीब एवं धनाभाव में दो जून की रोटी जुटातीं नारियाँ एवं एक विशिष्ट वर्ग की नारियाँ जो अपराधिनी हैं किन्तु अपनी सुन्दरता मोहकता और अप्रतिम भोलेपन से पाठकों के हृदयपटल पर अमिट छाप छोड़ देती हैं। उन्हें गढ़ने में शिवानी जी ने विशेष नैपुण्य प्राप्त किया है। पद्मश्री की उपाधि की भव्यता और रामरति की दयनीय स्थिति को एकसी सरसता से गढ़ने वाली शिवानी ‘सोने दे’ लिखकर पंचतत्व में विलीन हो गईं। अपने पाठकों को अपनी श्लाघ्य्नीय रचनाओं का उपहार दे।
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