भगवद्गीता देव संस्कृति का परम मुकुट है। इसमें दर्शन काव्य मनोविज्ञान शांति क्रांति वीरता योग और जीवन तथा जगत् के विविध आयाम समाहित हैं। गीता संसार के प्रत्येक व्यक्ति का हित साधन करती है। इसके द्वार से कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौट सकता। अध्याय नौ में योगेश्वर ने दुराचारी-से-दुराचारी व्यक्ति का भी कल्याण करने की घोषणा की है। इसके जीवनदायी सात सौ सूत्रों में विश्व की प्रत्येक समस्या का समाधान निहित है। भगवान् ने अर्जुन को निमित्त बनाकर समूची मानव-जाति को विश्व-हित में कर्म करने का संदेश दिया है। तलवारों की खनखनाहटों और युद्ध के ढोल-नगाड़ों के बीच में योग जैसे गूढ़ विषय का उपदेश देना विश्व-इतिहास की अनूठी घटना है। ‘योग: कर्मसु कौशलम्’–कर्मों को कुशलतापूर्वक करना ही योग है। सबके हित को ध्यान में रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना ही कर्मयोग है। योग की इससे सरल परिभाषा कोई भी नहीं हो सकती। यह अपने हाथ का खेल है। इसमें किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। किसी जंगल गुफा या आश्रम में जाने की भी जरूरत नहीं है। गीता में कर्मयोग का अर्थ अत्यंत व्यापक और सूक्ष्म है। कर्म तभी योग का रूप लेता है जब भगवद्भाव से किया जाए। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से ही हमारे अंदर भगवद्भाव पैदा होता है।
Piracy-free
Assured Quality
Secure Transactions
Delivery Options
Please enter pincode to check delivery time.
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.