‘वेद’ न जाने कब से मनुष्य मात्र और उसकी चेतना को ऊर्जस्वित करते आ रहे हैं। इनमें ज्ञान कर्म और उपासना अर्थात सर्वांग जीवन से सम्बंधित मंत्र रूपी सहस्रों मञ्जूषाएं संगृहीत हैं जो जब खुलती हैं तब युक्तिकामी संसारी के साथ-साथ मुक्तिकामी विरागी तक को चमत्कृत-अभिभूत कर देती हैं। वेदमंत्रों की काव्यात्मकता हमें अतिरिक्त रूप से आकर्षित करती है। ‘श्रुतिछन्दा’ में चारों वेदों- ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद -से चयनित सवा दो सौ से अधिक पवित्र मंत्रों के सहज-सरल हिंदी काव्यानुवाद प्रस्तुत हैं। यह सीमित संख्या में होते हुए भी वेदों के हज़ारों मंत्रों का समुचित प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं। वेदमंत्रों के ऋषियों की तरह मंत्रद्रष्टा सरीखे अमृत खरे ने निश्चित रूप से प्रत्येक वेदमंत्र की मूल संवेदना को पहचाना है; उसे ग्रहण किया है आयत्त किया है; हृदयंगम किया है; तभी उनका काव्यानुवाद इतना हृदयस्पर्शी इतना सटीक और इतना ग्राह्य बन पड़ा है। वर्षों पूर्व व्याकरणाचार्य श्री ओजोमित्र शारत्री (पूर्व कुलपति गुरुकुल महाविद्यालय अयोध्या) ने कहा था “बिना वेदमंत्र की मूल संवेदना तक पहुँचे ऐसा उत्तम काव्यानुवाद जो सर्वांगपूर्ण हो नहीं किया जा सकता है। संभव है कि अमृत खरे को यह शक्ति मंत्रद्रष्टा के रूप में ईश्वर प्रदत्त प्राप्त है।” ‘श्रुतिछन्दा’ में कविर्मनीषी अमृत खरे अपने लगभग चौथाई शती के सतत् स्वाध्याय परिश्रम लगन और सृजनात्मकता से काव्यानंद को ब्रह्मानंद में ढालकर पाठकों-श्रोताओं को आध्यात्मिक सौंदर्य का रसपान कराते हुए दिखायी देते हैं।
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