ज्ञानेन्द्रपति ने आँख हाथ बनते हुए (१९७१) से लेकर कविता भविता (२०२०) तक अपनी काव्ययात्रा की आधी सदी पूरी कर ली है। वे अब भी रचनारत हैं और उन्होंने अपनी साँसों की लय कविता की लय से एक कर रखी है। उन्होंने अपनी कविता के लिए बार-बार जमीन तोड़ी है और काव्यवस्तु के साथ काव्यभाषा में भी नयी खिड़कियाँ खोली हैं। कविता को उन्होंने शुरू से ही स्वीकृत कर्म और दायित्व की तरह लिया है और केवल रचकर संतुष्ट हो जाने के बजाय पढ़ते-गढ़ते में अपने विशिष्ट रचनानुभवों को भी सूत्रबद्ध किया है। उन्होंने अपनी कविता के कई क्लू अपने साक्षात्कारों में दिए हैं तो भी अब जरूरी है कि हिंदी कविता के सुसंस्कृत भावक उनकी कृतियों का भावन - अनुभावन करें और पाठकों को उनके सौन्दर्य-स्रोत तक पहुंचने में मदद करें। सिद्धार्थ शंकर राय ने इस पुस्तक में विविध अध्येताओं के आलेखों का दृष्टिवान संकलन किया है। इन लेखों में कुछ विशेष काँध है जिसके उजाले में कवि ज्ञानेन्द्रपति की मुकम्मल पहचान की जा सकती है। ज्ञानेन्द्रपति के कवि जीवन के प्रायः आरंभ से लेकर कोरोना काल तक की विरल स्मृतियों को आँकते हुए न केवल उनके काव्य-विकास और रचना-प्रक्रिया की विशेषता को लक्ष्य किया गया है बल्कि कवि व्यक्तित्व पर भी कुछ मंतव्य दिये गये हैं जैसे- ज्ञानेन्द्रपति एक प्रकार से त्रिलोचन की परंपरा के संवाहक कवि कहे जा सकते हैं और उनकी कविताएँ औपन्यासिक वितान रचती हुई अपने समय का एक मार्मिक महाख्यान लगती हैं। इस पुस्तक में ट्राम में एक याद की व्याख्या एक अविस्मरणीय प्रेम कविता के रूप में की गई है तो ज्ञानेन्द्रपति की काव्यभाषा की अद्वितीयता पर भी ध्यान दिया गया है: उनकी कविता का अनुवाद संभव नहीं इतनी वह हिंदी है। -अवधेश प्रधान
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