सीता विपिन में बैठकर पन्ने विगत के खोलती<br>तर्कों-वितर्कों पर सभी घटनाक्रमों को तोलती-<br>बनकर गरल जो घुल रहा वह कौन सा अभिशाप है<br>बड़वाग्नि सा हिय मध्य जलता कौन सा वह पाप है<br><br>उत्तर रहित ही प्रश्न यह है सामने मेरे पड़ा<br>है कौन सा दुष्कर्म मेरा फलित हो सम्मुख खड़ा<br>क्यों घेर लाई है नियति फिर वेदना की यामिनी<br>है आज क्यों वनवास फिर से विवशता मेरी बनी<br><br>विधिनाथ से मेरी खुशी पल भर नहीं देखी गई<br>किस कर्म का है दण्ड वन रघुकुल-वधू भेजी गई<br>था घोर कितना पाप मेरा दण्ड पाने के लिए<br>कम पड़ गए चौदह बरस वनवास जो हमने किए
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