‘सियासत’ प्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार-व्यंग्यकार सुरेश कांत का नया उपन्यास है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस उपन्यास का विषय राजनीति है—वही राजनीति जो आदमी के जीवन में सबसे अधिक महत्त्व रखती है। जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं है जो राजनीति से अछूता हो। इसलिए जीवन में राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता और न रहना ही चाहिए। राजनीति से अलग रहने की बात कहना भी एक शातिर किस्म की राजनीति है। आजादी के पूर्व से लेकर आजादी मिलने तक के लगभग एक शताब्दी के काल-खंड को समेटता यह उपन्यास बताता है कि किस तरह आजादी महज हुक्मरानों की शक्लों का बदलाव भर रही; दुहने वाले बदल गए पर दुही जाने वाली जनता की हालत ज्यों की त्यों रही वह पहले की तरह ही दुही जाती रही और अभी भी दुही जा रही है। एक रियासत की कहानी है यह पर किसी दूसरी रियासत की कहानी नहीं है ऐसा कोई दावा नहीं है। सच तो यह है कि यह एक-दो रियासतों-रजवाड़ों की नहीं बल्कि सभी रियासतों-रजवाड़ों की कहानी है। एक रियासत के बहाने यह पूरे हिंदुस्तान की कहानी है। यह सियासत है उस प्यादे की जो रियासत में अपने को फरज़ी यानी वज़ीर समझता ही नहीं बल्कि बनना भी चाहता है। और उस फरज़ी की भी जो असल में फरज़ी के भेस में प्यादा है। बहुत सनसनीखेज़ है यह सियासत और उतनी ही मानीखेज़ भी! अपने अछूते विषय व्यापक सहानुभूति और अचूक जीवन-दृष्टि की बदौलत यह उपन्यास अपने आप में एक जीवंत दस्तावेज बन गया है।
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