अरुण कुमार केशरी वाराणसी के उदीयमान कवि के रूप में 1989 में आधुनिक तेवर की कविताओं के संग्रह चीख़ के साथ सामने आए और यह आशा बंघा गये कि धूमिल के बाद नई कविता या समकालीन कविता उन के माध्यम से काव्य संसार में बनारस को प्रतिष्ठित करेगी। इस क्रम में ठीक पांच वर्ष बाद उसी तेवर का उनका दूसरा कविता संग्रह द्वन्द्व नाम से सामने आया। यह संयोग ही कहा जाएगा कि इन दोनों संग्रहों के प्रकाशन के विद्वान अधिष्ठाता श्री पुरुषोत्तम मोदी थे जिन्होंने इन पुस्तकों की सम्यक पहचान की।डा मोहनलाल तिवारीनैसर्गिक कविता संवेदना और परिवेश की कोख़ से जन्म लेतीं हैं और सामर्थ्यवान कवि ही अपने युग के सच को वर्जनाओं की उपेक्षा कर नि:संकोच सार्वजनिक कर सकता है।आज इसी संदर्भ में अरुण कुमार केशरी का दशकों बाद तीसरा काव्य संग्रह सोच राष्ट्र ही नहीं विश्व के वर्तमानभूत और भविष्य की आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों पर मंडराते मानवीय संकट को अपनी पैनी दृष्टि से उजागर करती हुई अपनी संघर्षशील चेतना से सोचने समझने के लिए पाठकों को मजबूर कर देगी ऐसी आशा कर सकता हूं।सच तो यह है कि सोचकविता संग्रह में एहसास के कई रंग छिपे हुए हैं जिसमें जीवन की छटपटाहट और कुछ कर गुजरने की तीव्र लालसा है वस्तुतः सही आदमी के लिए सही दुनिया की तलाश की लड़ाई से ही भूखे पेट की लड़ाई शुरू होती है और यही है सोच संग्रह की कविताओं का दर्द भी। जो इन पंक्तियों से सोच का सार्थक उदाहरण प्रस्तुत करतीं हैं।कल सुननामौन अभी अपनीज़मीन तैयार कर रहा है।बटाई में मिलीफूट और बैर की फसलकाटते काटते ऊब चुका हूंमेरे पास बहुत कुछ है कहने कोआपके पास समय नहीं है सुनने को।विचार आने दोउन्मुक्त स्वतंत्रअपरिहार्य है उनका आनामत रोको उन्हेंबस ! बंद करते चलोमस्तिष्क के किसी कोने में। डा अत्रि भारद्वाज
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