हृदय स्पंदन की उत्पत्ति एवं विराम के मध्य का समय-अंतराल ही जीवन है। स्पंदनों की लय एवं ताल मस्तिष्क में उभरते हुए भले-बुरे भावों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है और जीवन अनवरत चलता रहता है। साहित्यिक रचनाओं में रचनाकार के मनोभाव यथा:- अनुराग द्वेष श्रंगार शौर्य इत्यादि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते रहते हैं। प्रस्तुत पुस्तक ‘‘स्पंदन’’ रचनाकार के जीवन में समय-समय पर उत्पन्न मनोभावों का संक्षिप्त रूप है। जिन्हें क्रमश: दोहे कुण्डलियाँ मुक्तक गीत एवं गज़़ल जैसी विधाओं में पिरोया गया है। पुस्तक के प्रथम खण्ड में कुल तिरानवें दोहे जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। पुस्तक के द्वितीय खण्ड में कुल ग्यारह नीतिगत कुण्डलियाँ तृतीय खण्ड में चोंसठ मुक्तक चतुर्थ खण्ड में बारह नवगीत एवं अंतिम खण्ड में कुल चौवालीस गज़़लें समाहित की गई हैं। लेखन में सरल हिंदी भाषा का प्रमुखता से प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं सहज रुप से प्रयोग होने वाले उर्दू अल्फ़ाज़ भी हैं। सभी रचनाएं मानव जीवन के विभिन्न आयामों को रेखांकित करती हुई प्रतीत होती हैं।
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