Sugandha Evam Anya Kahaniyan
Hindi


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About The Book

अपनी बात अपनी यायावरी ज़िंदगी में मैंने बहुत से पड़ाव देखें हैं और हर पड़ाव पर अपने आस-पास बिखरी कुछ कहानियों के सूत्र भी स्वत: ही मिलते गये हैं लेकिन जीवन की आपा-धापी में इन्हे गूँथने का किंचित अवकाश नहीं मिल पाया। कभी- कभी मुझे तो ऐसा भी लगा कि इस संग्रह कि हर कहानी अपने-आप में एक आईना है जहां अपने अक्स हम चाहे तो ढूंढ भी सकते हैं। जबतक पंखुड़ियाँ बंद रहती है प्रस्फुटित होते हुए पुष्पका सौंदर्य दृष्टिगोचर नहीं होता वैसे ही अक्षरों और शब्दों से बुने हुए जीवन मूल्यों के चिरंतन-सत्य से अवगत होते हुए भी हम तबतक अनभिज्ञ ही रह जाते हैं जबतक उनके अंतस में छिपी वेदना नहीं महसूस कर पाते। आज के तकनीक प्रधान युग में भी मानवीय संबेदनाओं के अगाध विस्तार की अनदेखी हम कदापि नहीं कर सकते यही इस संग्रह की सभी रचनाओं का कथ्य और अभीष्ट भी है। कुछ कहानियों के अंश उद्धृत है; “फिर विप्लव सोचता वह कितना बुजदिल है इतने ही संघर्ष में हिम्मत हार बैठा। उसके पिता और दादा ने कैसे-कैसे दिन इसी कोलकाता में देखे है। उसके पिताजी बताते थे की 16 अगस्त 1946 को जब उनके पिता यानि विप्लव के दादाजी इसी फूल बागान में अपनी दुकान पर बैठे ग्राहको से लेन-देन कर रहे थे तभी ज़ोरों का हल्ला हुआ। दंगे की सुगबुगाहट तो पिछले एक माह से थी पर आज तो मानों विस्फोट ही हो गया। मुहल्ले क्या पूरे कलकत्ता में दंगा फैल गया था मारो-काटो की आवाज़े लगातार आ रही थी जबतक उनके पिताजी कुछ समझ पाते उन्हे दिखाई पड़ा कि बहुत से लोग जिनके हाथों में तलवारें भाले लाठियां और न जाने क्या-क्या हथियार थे गली में दौड़ते चले आ रहे हैं आप्तधर्म समझ वे काउंटर से कूद पड़े और फकत बनियान-लूँगी पहने दुकान एकदम से खुली छोड़ कर गलियों के रास्ते भागे। रोकड़-बक्स से रुपए भी नहीं उठा सके। किसी तरह गलियों से छिपते हुए उन्होने अपनी जान बचाई। फिर छिपते-छिपते हुए डेढ़ माह में अपने पुश्तैनी घर बिहारशरीफ जा पहुंचे। पूरे तीन महीने के बाद जब शांति कायम हुई तो वापस आये तो देखा कि दंगाई उनकी सारी दुकान ही लूट गये थे। खैर फिर से तिनका-तिनका जोड़ कर उन्होने अपना नीड़ बसाया होगा। उन्हे तो किसी से कोई शिकायत नहीं रही ईश्वर पर अडिग आस्था थी सो जीवन-पर्यंत बनी रही।......................................... कहानी एक रात की से “विकास तुम क्या समझ बैठे हो कि नारी आज भी इतनी परवश है कि पुरुष जब चाहे उसे किसी के पैरों मे घुंघरू की तरह बांध दे और जब चाहे किसी दूसरे के पैरों में। तुम मेरी और मेरे परिवार की हकीकत जान ही रहे हो जबसे मेरे पिताजी गुजर गये एक योद्धा कि तरह लड़ती ही रही हूँ मैं अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता करना नहीं सीखा मैंने। सारी वर्जनाएं तोड़कर तुमको मैंने चाहा था लेकिन तुम ठहरे डरपोक जमाने से लड़ना सीखा ही नहीं तुमने तो। क्या परिवार और क्या समाज – सभी से डरते रहोगे तो सारी ज़िंदगी डर में ही गुजर जायेगी। तुम भूल गए कि डर के आगे जीत होती है। अपने अंतस के भय से लड़ों यदि उसे पराजित कर सको तो तुम संसार में अपनी एक पहचान बना पाओगे। कायर होकर जीना भी कोई जीना है भला? मेरे पास दो दिल तो है नहीं एक था उसे तेरे हवाले किया अब चाह कर भी तुम्हारी याद तो मिटा नहीं सकती। तुम शायद नहीं देख पाओगे अपनी पलकों में छिपा रखें हैं आँसू मैंने। लेकिन इन्हे आज तक बरसने का इजाजत नहीं दी। शायद तुम नहीं समझ पाओगे कितना दर्द लिए मैं जी रही हूँ। तुम्हारे अंदर जब समाज की कृत्रिम दीवारों से लड़ने की शक्ति आ जायेगी तुम स्वत: चलकर मेरे पास आना प्रिय मैं तुम्हारा और बस तुम्हारा ही इंतज़ार करूंगी। आखिरकार नीड़ का पंछी भी लौट कर वापस अपने नीड़ में ही आता है। तुम्हारे बिन मैं और मेरे बिन तुम अधूरे हो विकास यह कहने नहीं महसूस करने की बात है। ” ........................नीड़ का पंछी से “बदहाली का आलम यह था कि 1769-70 के महाअकाल में बंगाल और बिहार की लगभग एक तिहाई आबादी मौत के मुंह में समा गई। इस दुर्भिक्ष की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग पेट की भूख के कारण मुरदों तक का मांस खाने को विबश थे। औरतों और बच्चों तक को सड़े-बाज़ार बेचा जा रहा था। लेकिन कम्पनी के कारिंदे लगान की वसूली के लिए ज़ोर-जबर्दस्ती कर रहे थे। रेविन्यू-रिकार्ड बताते हैं कि इस महाअकाल के दौरान भी टैक्स की वसूली सर्वाधिक हुई। यह कलकत्ता की परिषद का निर्लज्ज बयान ही है जो उसने लंदन के ‘बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स’ को भेजा “हमारे कुशल राजस्व-प्रशासन की वदौलत इस साल करों की वसूली पिछले सभी सालों की अपेक्षा कई गुना है।“ ...............’गोल-घर’’ से “रुपयों की प्राप्ति के लिए कोई हाहाकार नहीं। फूटपाथों पर जन्म लेकर फुटपाथ पर ही पूरी ज़िंदगी गुजार देनेवाले हजारों परिवार यहाँ बसते हैं। इन्हे देखकर अविनाश बाबू कभी-कभी बड़े द्रवित होकर सोचते कि इनके लिए आकाश का रंग वैसा ही बेमानी है जैसे किसी संवेदनशील मनुष्य को ऐसे दीन-हीन अकिंचन जनों की आंखो की गहराई मे दिखनेवाली शून्यता।“ .......................’नीला आसमां’ से
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