प्रवृत्तियों पर गौर करें तो सभी कालों के केंद्रक तक पहुँचने पर हम पाते हैं कि सभी का उत्प्रेरक तत्व । 'काम' है। वीरगाथा काल की एक बानगी -<br>जिहि की बिटिया सुंदर देखी<br> तिहि पर धाय धरे हथियार यानि वीरगाथा काल में ये वीरों का प्राइम जॉब रहा। कि जिसकी बेटी 'सोहनी' देखी उसी को कह दिया- "यू आर माई सोनिया" । कजरे की धार के सामने तलवारों की धार पानी-पानी हो गई। सलवारों के सामने तलवारें हैंड्स-अप की मुद्रा में आ गई। सोलह बरस की बाली उमर को सलाम करने के चक्कर में अपने वीर चक्कर खाकर वीरगति को प्राप्त हो गए। क्योंकि इन वीरों का मानना है कि बारह - बरस तक कुत्ते जीते हैं तेरह तक सियार और योद्धा जो हैं; सो मात्र अठारह बरस तक जीते हैं आगे जीने पर धिक्कार। क्या विलक्षण साम्यवाद है। कुत्ते सियार और हमारे प्राचीन भारतीय वीर सब एक तल पर। यह जीवन और यह वीरता किस निमित्त? उत्तर । है- भोग काम या रति।<br>और भक्तिकाल पर दृष्टिपात करें तो मन और मस्तिष्क कंपन स्थिति में जाते हैं। ज़्यादातर भक्त कवि ऐसे हैं जिन्होंने राधा-कृष्ण के रास में से काम का बाईपास निकाल लिया। एक भक्त कवि को तो कामिनी के पयोधर में महादेव का घर दिखता था। इन्होंने तन को नश्वर व स्तन को ईश्वर समझा। जरा गौर करेंसुरत समापि सुतल वर नागर पानि पयोधर आपी कनक शम्भू जनि पूजि पुजारी धयल सरोरुह झापी गोस्वामी जी को देखो जो 'काम' के साथ 'राम' को कम्पेयर करते हैं। वे कहते हैं<br>कामिहि नारि पियारी जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
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