'स्वतंत्र हुए स्वाधीन होना है' एक अत्यंत पठनीय ही नहीं सचमुच विचारोत्तेजक और मननीय निबंधों का संग्रह है जिसमें स्वातंत्र्योत्तर भारत की दशा-दिशा का अत्यंत विचारोत्तेजक और यथातथ्य आकलन प्रस्तुत किया गया है। स्वराज के मौलिक और अर्जित अर्थ की घनघोर विडंबना का ऐसा तथ्यपूर्ण और विचार-समृद्ध चित्रण कितना विरल है यह इस पुस्तक को आद्योपांत पढ़कर ही अनुभव किया जा सकता है। प्रारम्भ में ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता का उद्धरण पाठक के सिर पर चढ़कर बोलता है : ' जो पर-पदार्थ के इच्छुक हैं /वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं'। जीव-संवेदी और प्रकृति-संवेदी भारतीय सभ्यता और समाज की बहुवर्णी छटा किस तरह मानववाद से बहुत आगे बढ़कर चराचरवाद को चरितार्थ करती रही है यह तथ्य और उसकी अधुनातन विडम्बना भी लेखक शिवदयाल की दृष्टि के केंद्र मे है। स्वयं लेखक के शब्दों में 'एक से अनेक होने का मतलब ही सृजन है अर्थात एक का अनेक में होना..'। गांधीजी की अद्यावधि प्रासंगिकता को जिस तरह लेखक ने सर्वथा नए सन्दर्भों में पुनराविष्कृत और पुनर्मूल्यांकित करने की चेष्टा की है वह ध्यातव्य है। आत्महीनता की ग्रंथि के साथ विकसित होना कितनी बड़ी विडम्बना और आत्मछलना है लेखक ने इस त्रासदी का यथातथ्य पारदर्शन किया है। उसका सुस्पष्ट निष्कर्ष है कि पिछले सात दशकों की आजादी में राष्ट्रनिर्माण का कार्य नेहरूवादी मॉडल के आधार पर हुआ है न कि गांधीवादी मॉडल पर। यह भी कि हमारे सरोकार असली नहीं नकली हैं और इसीलिए सरोकारविहीनता से अधिक खतरनाक भी। लेखक का जीवनादर्श फनीश्वरनाथ रेणु के करीब का है - ' जो कमजोरों के पक्षधर होते हुए भी जीवन को समग्रता में देखने के आग्रही थे।
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