यह परसाई की शुरुआती रचनाओं का संकलन है। कह सकते हैं कि इस दौर की अपने लेखन में वे भाषा के स्तर पर अपनी राह बना रहे थे और अपने व्यंग्य की धार को भी परख रहे थे। लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि समाज और राजनीति को लेकर उनकी समझ तब भी उतनी ही साफ़ थी। इस संग्रह में शामिल ‘भेड़ें और भेड़िये’ ‘गो-भक्ति’ ‘देव-भक्ति’ और ‘रासलीला’ जैसी कहानियाँ हैं जो धर्म के स्वार्थ-आधारित दुरुपयोग के ख़तरों के प्रति हमें आगाह करती है। रोज़गार और जीवन-यापन के संघर्ष मध्यवर्ग का पाखंड और स्त्री-स्वाधीनता जैसे प्रश्न इन रचनाओं में उतनी ही तीव्रता से आते हैं जिस तरह उनकी बाद की रचनाओं में लेकिन आज़ादी के फ़ौरन बाद वाले दशक में इन अवरोधों को देख पाना अपने आप में एक उपलब्धि है। संग्रह में शामिल ‘बाबू की बदली’ शीर्षक कहानी ने अपने समय में काफ़ी हलचल पैदा की थी परसाई पर स्त्री की गुलामी का समर्थन करने तक के आरोप लगे थे जिनका उत्तर वे यहाँ संकलित ‘अपनी बात’ में देते हैं। अपने व्यंग्य की तीक्ष्णता के सन्दर्भ में उनका कहना है कि चट्टान-सी बुराई पर अगर कोई सुनार की छोटी हथौड़ी से प्रहार करे तो यह उसकी नासमझी ही कही जाएगी। अच्छा हुआ कि उन्होंने शुरू से ही घन का इस्तेमाल किया और हमें उन जैसा व्यंग्यकार मिला।
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