इक़बाल युग निर्माता शायर थे। उनकी शायरी एक विचार के ख़ास निज़ाम से रोशनी ग्रहण करती है जो उन्होंने पूरब-पश्चिम के सियासी सांस्कृतिक सामाजिक और आध्यात्मिक परिस्थितियों के अवलोकन के बाद संकलित किया था और महसूस किया था कि उच्च मानवीय मूल्यों का जो पतन दोनों जगह मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में इंसानियत को जकड़े हुए है उसका समाधान आवश्यक है। ख़ास तौर से पूरब की बदहाली उनको बेचैन करती थी और वो उसके कारणों से भी अवगत थे लिहाज़ा उन्होंने इंसानी ज़िंदगी को सुधारने और उसे तरक़्क़ी की राह पर ले चलने के लिए अपनी शायरी को ज़रिया बनाया। इक़बाल आदमी की महानता के अलमबरदार थे और वो किसी बख़्शी हुई जन्नत की बजाय अपने ख़ून-ए-जिगर से स्वयं अपनी जन्नत बनाने की प्रक्रिया को अधिक संभावित और अधिक जीवनदायिनी समझते थे। इसके लिए उसका उपाय तजवीज़ करते हुए उन्होंने कहा था “पूरब के राष्ट्रों को ये महसूस कर लेना चाहिए कि ज़िंदगी अपनी हवेली में किसी तरह का इन्क़िलाब नहीं पैदा कर सकती जब तक उसकी अंदरूनी गहराईयों में इन्क़िलाब न पैदा हो और कोई नई दुनिया एक बाहरी अस्तित्व नहीं हासिल कर सकती जब तक उसका वजूद इंसानों के ज़मीर में रूपायित न हो।” इक़बाल की शायरी मूल रूप से सक्रियता व कर्म और निरंतर संघर्ष को बयां करती है। यहाँ तक कि उनके यहाँ कभी-कभी ये संघर्ष उद्देश्य प्राप्ति के माध्यम की बजाय ख़ुद मक़सद बनती नज़र आती है। “जो कबूतर पर झपटने में मज़ा है ए पिसरवो मज़ा शायद कबूतर के लहू में भी नहीं।”
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