इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी जिसने संपूर्ण विश्व की गति को रोक दिया और जिसमें लाखों जीवन नष्ट हो गए उसी विभीषिका के बीच चल रहे मनुष्य की अदम्य जिजीविषा की कथा है उपन्यास- “द जर्नी ऑफ बर्निंग ख्वाब”। लेखनी से निकला यह दूसरा उपन्यास पहली पंक्ति से ही पाठक को बाँध लेता है। कोरोना महामारी में शिक्षार्थ अपने घरों से दूर लॉकडाउन में फँसे महामारी के डर और संसाधनों की कमी के बीच अनिश्चितता के भँवर में झूलते हुए छात्रों की मानसिक वेदना का बहुत ही सटीक और प्रभावशाली चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। कसा हुआ कथानक तो ऐसा है ही जो प्रतिपल उत्सुकता जगाए रखता है साथ ही लेखनशैली भी ऐसी है कि दृश्यों को चित्र की भाँति पाठक की आँखो के सम्मुख उकेरती जाती है। इससे रोचकता बही रहती है। भाषाशैली सहज सरल और पुष्ट है।
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