हिन्दुस्तानी संगीत एक दुनिया जो कहीं खो गई ‘कुदरत तेरी रंग बिरंगी’ - ये बोल थे उस भजन के जो अब्दुल करीम ख़ान ने सूफ़ी संत ताजुद्दीन बाबा के सामने गाया। वह पीर मुर्शिद इस भजन से सम्मोहित होकर तालियां बजाते हुए नाचने लगा। कुमार प्रसाद की संगीत दिग्गजों के लुप्त होने के युग की इस करुण कथा में गायक कलाकार और श्रोताओं के बीच गायन तथा करतल ध्वनि के बीच के ऐसे बहुत से साझे अनुभवों का वर्णन किया गया है। यह कृति इतिहास की छायाओं में विलीन होती एक ऐसी दुनिया को दी गई विदाई है जिसमें उस्तादों पंडितों धनाढ्यों यशस्वियों पवित्र आत्माओं और दुराचारियों का निवास था। वे लोक परंपराओं से उनके घरानों की उत्पत्ति से लेकर प्राचीन महाराजाओं के दरबारों और उनकी नर्तकियों की पायल की झंकार तक का तथ्यान्वेषण करते हैं। वे उस समय का उल्लेख करते हैं जब स्वरलिपि ने चुपके से शास्त्रीय संगीत में प्रवेश किया जिससे वे पुराने उस्ताद भयभीत हो उठे जो कला की एक ऐसी विधा के आदी थे जिसमें स्वतः प्रवृत्ति तात्कालिक प्रदर्शन को महत्व दिया जाता था। किंतु इसका एक अच्छा परिणाम यह भी निकला कि रागों को सुरक्षित बनाए रखा जा सका जोकि अन्यथा समय के साथ-साथ विलीन हो जाते। भले ही मुखर्जी के प्रिय ‘ख़ान साहब’ ‘पंडित जी’ और ‘बुआ’ दिव्य शक्ति से प्रेरित रहे हों किंतु संगीत जगत की नामवर शख्सियतों से प्राप्त जानकारी या अपनी निजी स्मृति पर आधारित उनके वर्णन से हमें यह जानने को मिलता है कि वे महान कलाकार वस्तुतः मानव ही थे। वे जिन प्रवृत्तियों से प्रेरित थे वे हमेशा उदार नहीं हुआ करती थीं और उनके षड्यंत्र और ईर्ष्या भाव सार्वलौकिक हैं। इस पुस्तक में हास्य-विनोद के भी अनेक प्रसंगों का वर्णन है और ऐसी शख्सियतों का भी जो पाठकों के मानस पटल पर अंकित रहेंगी।
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