दरअसल आप तब तक उस भीड़ का हिस्सा बनकर रहते हैं जब तक आप अपने आप से नहीं मिलते। जिस दिन आप अपने अंदर छुपे हुए उस शख्स़ से मिलते हैं। तब आपको जीवन के मायने समझ में आने लगते हैं और आप धीरे-धीरे इस भीड़ से अलग होने लगते हैं। क्योंकि उस भीड़ में आपकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं होती सिवाय गुमनामी के। जैसे ही आपको ये समझ आने लगता है तब आप भीड़ में हाथ उठाना बन्द कर देते हैं। आप उस भीड़ के विपरीत चलने लगते हैं। अब आप समझ चुके होंगे कि मैं आपसे धारा के विपरीत तैरने की बात कर रहा हूँ।
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