Tulsidas Chandan Ghisain


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About The Book

हरिशंकर परसाई के लिए व्यंग्य साध्य नहीं साधन था ! यही बात उनको साधारण व्यंग्यकारों से अलग करती है ! पाठक को हँसाना उसका मनोरंजन करना उनका मकसद नहीं था ! उनका मकसद उसे बदलना था ! और यह काम समाज-सत्य पर प्रमाणिक पकड़ सच्ची सहानुभूति और स्पष्ट विश्व-दृष्टि के बिना संभव नहीं हो सकता ! खास तौर पर अगर आपका माध्यम व्यंग्य जैसी विधा हो ! हरिशंकर परसाई के यहाँ ये सब खूबियाँ मिलती हैं ! उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता और वैचारिक स्पष्टता उनको व्यंग्य-साहित्य का नहीं विचार-साहित्य का पुरोधा बनाती है ! तुलसीदास चन्दन घिसैं के आलेखों का केंद्रीय स्वर मुख्यतः सत्ता और संस्कृति के सम्बन्ध हैं ! इसमें हिंदी साहित्य का समाज और सत्ता प्रतिष्ठानों से उसके संबंधों के समीकरण बार-बार सामने आते हैं ! पाक्षिक सारिका में 84-85 के दौरान लिखे गए इन निबंधों में परसाई जी ने उस दुर्लभ लेखकीय साहस का परिचय दिया है जो न अपने समकालीनों को नाराज करने से हिचकता है और न अपने पूर्वजों से ठिठोली करने से जिसे कोई चीमड़ नैतिकता रोकती है ! गौरतलब यह कि इन आलेखों को पढ़ते हुए हमें बिलकुल यह नहीं लगता कि इन्हें आज से कोई तीन दशक पहले लिखा गया था ! हम आज भी वैसे ही हैं और आज भी हमें एक परसाई की जरूरत है जो चुटकियों से ही सही पर हमारी खाल को मोटा होने से रोकता रहे !
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