‘‘नाम क्या बताया तुमने अपना?’’ ‘‘लंगी।’’ ‘‘लंगी? ये कौन-सा नाम है?’’ ‘‘अरे वह लंगड़ी बोलना कठिन होता है ना तो लंगी ही बोलते हैं लोग मुझे।’’ एक क्षण को कलेजा काँप गया उसका इस असहज करती सहजता पर। लेकिन दूसरे ही क्षण खुद को संयत करते हुए बोला ‘‘अरे कोई माँ-बाप अपने बच्चे का नाम लंगड़ी क्यों रखेंगे? जो तुम्हारे पेरेंट्स ने रखा वो नाम क्या रखा है?’’ ‘‘माँ-बाप का दिया नाम तो रहा नहीं। तो क्या करोगे भला मेरा असली नाम जान कर? याद तो यही रह जायेगा ना लंगी...!’’ - इसी पुस्तक से विकलांग होने के अर्थ और आशय को समझने और अनुभव करने वाली चालीस वर्षीय लेखिका कंचन सिंह चैहान ने 75 प्रतिशत विकलांग होने के बावजूद कभी विकलांगता से हार नहीं मानी और अपने व्हील चेयर को पंख बनाकर हौसले और जिजीविषा को नयी परिभाषा देती आ रही हैं। उनकी पहली पुस्तक तुम्हारी लंगी की कहानियों के विषय में वैविध्यता है। प्रेम एसिड अटैक वैवाहिक व घरेलू बलात्कार पर केन्द्रित कहानियों के साथ दो कहानियाँ विकलांग व्यक्तियों के रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली कठिनाइयों पर भी ध्यान आकर्षित करती हैं। पिछले एक दशक से समस्त साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने वाली कंचन सिंह चैहान ने अपने कलम की क्षमताओं से सबका ध्यान आकर्षित किया है। इनका संपर्क है: chouhan.kanchan1@g
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