ऊदा ऊन की गठरी (UDDA UN KI GATHRI)

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सर्दियाँ आने को हैं ये जानने के कुछ आम और कुछ ख़ास तरीक़े होते हैं. सबसे नर्म गर्म और रंगीला अंदेशा होता है माँ दादी या नानी के घर के सबसे अँधेरे कोने से पुराने संदूक को खुलवा के आला रंग की ऊन के गोले निकलवा के उन्हें धूप खिलाना. स्वेटर या हम जिसे पुलोवर कहते थे उसे हर रोज़ थोड़ा बुनता-उधड़ता रंग पर रंग चढ़ता-उतरता कभी पूरे दिन एक ही रंग का लम्बा होना और किसी रोज़ पुलोवर का एक अंग पूरा कर के उसे अलग पड़े देखने का अपना ही मज़ा था. मग़र ऊन और बुनाई के काँटों से काम सिर्फ़ माँ-दादी-नानी का नहीं था. उनसे छुप के ऊन का एक हल्का सा गोला छत पर ले जा के अपनी मांझे-सद्दी की छोटी चटाई को लम्बी कर लेना काँटों को तलवार बना के राजा-महाराजा की तरह युद्ध करना और माँ के लिए आधी बुनी पुलोवर पहन कर उनके लिए मॉडलिंग करना अपने में एक हसीन जलवा हुआ करता था. सालों हमने पुलोवर की ऊपरी रंगत और खूबसूरती देख के ज़िन्दगी को भी ऐसा ही समझा. फिर एक दिन नज़र पुलोवर के अंदर की तरफ़ की रंग-बिरंगी उजली और नई मग़र उलझी फँसी और बिना सिरे की गाँठों पर गई और नज़रिया मिला इस दुनिया दुनियादारी इश्क़ मेहबूब दोस्त दुश्मन और उस कटी पतंग का जो हमने अपनी छत पर खो दी थी.---कनिष्क न कवि है न कोई शायर. ये क़िताब उसकी ज़िन्दगी में जाती बारिश की बुझती नमी और आती सर्दी की संदली खुशबु का लेखा जोखा है जो उसने बड़ी मुश्किल से ऊन के कुछ गोलों में बाँधने की कोशिश की है. जिससे सुलझ जाए वो है असल कहानीकार.
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