उफनती राख' जीव जगत की संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती है। नारी और प्रकृति संवेदनाओं की प्रतिरूप हैं। जिस प्रकार प्रकृति समर्पण भाव से जीव जगत की आवश्यकताओं को पूरा करती है उसी प्रकार नारी भी अपने परिवार के प्रति समर्पित होती है। नारी में धरती जैसी सहनशीलता है तो आकाश जैसी विशालता होती है। पर्वत जैसी दृढ़ता होती है तो ज्वालामुखी जैसी आग भी होती है। तभी नारी को नवदुर्गा-रूपा कहा जाता है। नारी परिवार के लिए ही नहीं दरवाजे पर आए आगंतुक हों या आंगन में आए पशु-पक्षी सबकी भावनाओं और उनकी वेदना को भी महसूस करती है । वह उनका दया भाव से ही नहीं दुआ भाव से स्वागत करती है। लेकिन जब उसकी भावनाओं को अपनों द्वारा ही नहीं समझा जाता बल्कि अवहेलना की जाती है तो वह सिहर उठती है। उसके आत्मसम्मान को ठेस लगती है। यही ठेस उसके अंतःकरण में विरक्तता भर देती है। और उसे आत्ममंथन करने को मजबूर करती है। अपनी आहत भावनाओं को शब्दों में लिखकर या बोलकर व्यक्त करती है तो यही कीर्तन और लेखन बन जाता है। स्वतंत्रता के लिए कितने ही देशभक्तों ने सर्वस्व बलिदान कर दिया पर आज बहुत से लोग उनकी भावनाओं को महत्व नहीं देते। यह बात देशप्रेमियों को सालती है।आधुनिकता में देश बदल रहा है लोग बदल रहे हैं विचार बदल रहे हैं नारी भी बदल रही है। कर्तव्यनिष्ठ समर्पित होने की बजाय अधिकारों की चाहत बलवती हो रही है। नारी सशक्तिकरण ठीक है। लेकिन जब नारी दायित्व मुक्त होना चाहेगी तो परिवार समाज सब अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। क्योंकि धूरी की कील तो नारी है। वही जननी हैं वही प्रथम गुरु है वही मार्गदर्शक है।हमें सोचना होगा सर्वसमर्पित सर्वस्वरूपा नारी सृष्टि का आधार होगी या सर्वाधिकार सम्पन्न कर्तव्य -विमुख विचार वाली सुकून देगी।
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