जानी-मानी कथाकार क्षमा कौल ने 'उन दिनों कश्मीर' शीर्षक उपन्यास में समयसमाज और उसकी विकृत राजनीति के परिप्रेक्ष्य में समकालीन जीवन की सच्चाई व तिलमिलादेनेवाली अनुभूतियों को अपने चिर-परिचित बेफिक्र वसाफगो शैली में वाणी दी है। उन्होंने जम्मू प्रांत में दोमहीनों तक चले वर्ष 2008 के 'स्वामी अमरनाथ आंदोलन ' को जिसे लोग 'बम-बम भोले' आँदोलन के नाम से भी याद करते हैं मेटाफर के रूप में इस तरह उभारा है कि भारतीय राजनीति के ओढ़े हुए एकतरफा सेक्यूलर चेहरे और उससे बने असहज व कृत्रिम जीवन की अनेक तहें उद्घाटित होती हैं। ये परतें इतनी असहज व कृत्रिम हैंकि उसमें विरोध न करनेगलत होते देखनेअन्याय को चुपचाप सह जाने आदि को सामान्य जन के लिए सद्भाव बताया गया है। किंतु इकसठ वर्ष के बाद 'स्वामी अमरनाथ आंदोलन ' में कुछ ऐसा घटित हुआ कि इसअसहजता ने जन-जन के भीतर विस्फोट का रूप ले लिया। क्षमा कौल एक कुशल चितेरे की तरहपरिस्थितिजन्य आंदोलनधर्मी भाषा तथा जीवन के अंतःसम्बंधों का निर्वाह करती हैं और जम्मू प्रांत के जन-जन के आर्त्तनाद कोअन्याय के प्रतिकार को क्रोध कोछद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सक्रिय सत्ता-लोलुपराजनीतिक स्वार्थपरता को केंद्रीयता प्रदान करती हैं।गली-कूचोंसड़कोंबाजारों गाँवोंकस्बोंघर-मकानोंमंदिरों अस्पतालोंजेल-कोतवाली हर जगह राज्यतंत्र एवं जिहादी व अलगाववादी तत्त्वों के खिलाफआस्थावान स्त्रियोंनन्हें-मुन्नों किशोरोंयुवाओंअधेड़ोंवृद्धों बालकोंपढ़े-लिखों अनपढ़ों किन्नरों आदि सबने मिलकर गगनभेदी गर्जना की- 'बम-बम भोले!' यह था आस्था और आत्म-सम्मान का नाभिनाल प्राकट्य।राज्य और कट्टरतावादी तत्त्वों की मिलीभगत से अपनायह एकमात्र संबल छीने जाने के विरोध में जनता की जोखिम भरी हुंकार।उपन्यास में यह नारा जितनी बार गूंजता हैउतनी बार इसके हज़ारों अर्थ खुलते नज़र आते हैं। विगत इकसठ वर्ष से जारी कश्मीर-केंद्रित भारतीय राजनीति के हाथों भेदभाव के शिकार जम्मूवासियों के मन में खौलते दहकते शब्दार्थ।एक जनाँदोलन को केंद्र में रखकर उसके कर्मक्षेत्र जम्मू और उसकी संघर्षरत् भोली-भाली खंड़-मिठी जनता को पहली बार किसी उपन्यास में लीक से हटकर नायकत्व मिला है। इस आख्यान को उपन्यास में उतारना एक कठिन कर्म थाअतः यह कथा इस विधा में अपनी प्रक्रिया के सूक्ष्म आरंभ से चरम परिणति तक इस तरह रची गई है कि इसका समूचा मर्म सब संदर्भों सहित सुदूर भविष्य में भी अक्षुण्ण रहे; क्योंकि यह अभी रिहर्सल है। किसी उपन्यास में एक जनांदोलन जब अपनी समग्रता व संपूर्ण उद्दामता के साथ केंद्रीय संवेदना या केंद्रीय-बिम्ब के रूप में आए तो उसकी गति और उसका तापमान उपन्यास की शिल्पगत संरचना की पांरपरिकता की चिंता नहीं करता। कथा का निर्बाध प्रवाह कई बार तटबंध तोड़ कर खुले में आता है; जैसा कि इस उपन्यास में भी घटित हुआ है।लोगों के संघर्षसाहससंकल्प की इस कथा के मनोवैज्ञानिक- समाजशास्त्रीय इतिहासगत और आस्थागत आयाम हैं।उपन्यास का आरंभ उठान चरम और विजय का इंगितरोमांचकारी उम्मीद जगाता है। न कोई थकान कोई रुकान कोई मरने से डरा। एक विस्मयकारी महाकाव्यीय नाटक का फुल-ड्रेस रिहर्सल मानवता के शुभ के लिए ! भारतीय जीवन-मूल्यों की अपने सहज मूल और वास्तविकजीवन में पुनर्स्थापना के लिए यह संघर्ष एक पूर्वाभ्यास है।
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