माया गोला नई कवयित्री हैं लेकिन बहुत नई भी नहीं। इनके जीवन के लंबे संघर्ष में कविता का संघर्ष भी शामिल है। निस्संदेह उनके इस तीसरे संग्रह ‘उपाधियां लौटाती हूं’ से उस संघर्ष को नई पहचान मिलेगी। उनकी कविता के केंद्र मे भी स्त्री है लेकिन श्रम आधारित सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण यहां स्त्री एक नए रूप में और नई भूमिका के साथ सामने आती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कविताओं के केंद्र में है प्रेम। वे लिखती हैं: ‘बिना प्रेम के हरा नहीं रहता कुछ भी इस दुनिया में’ प्रेम की यह अनूठी अभिव्यत्तिफ़ न केवल उनकी कविता को नई जमीन देती है बल्कि विमर्श को भी स्त्री-पुरुष की बायनरी से बाहर निकालकर व्यापक संघर्षशील और सुंदर समाज की परिकल्पना के साथ जोड़ने का सार्थक प्रयत्न करती है। ‘औरतें: धरती और प्रेम’ सिर्फ एक कविता का शीर्षक नहीं बल्कि वह परिधि है जिसके भीतर इस संग्रह की लगभग सभी महत्वपूर्ण कविताओं को रचा गया है। इसमें चुप्पी और विलाप ही नहीं उपाधियाँ लौटाने का संकल्प और पितृसत्ता को दी जाने वाली चुनौतियाँ भी हैं मीरा और सावित्रीबाई फुले की स्मृति है तो लखीमपुर खीरी में बलात्कार के बाद मार दी गई दो बहनों की करुणा यादें भी। बिलकिस बानो पर लिखी कविता में माया गोला उसके दुख और संघर्ष की ही व्यत्तफ़ नहीं करती बल्कि बलात्कारियों को महिमामंडित करने वाले समाज और सत्ता पर गहरी चोट भी करती हैं। हिंदी की स्त्री और दलित कविता के अंतर्संबंधों को जिन कुछ युवा रचनाकारों के माध्यम से समझा जा सकता है उनमें एक माया गोला भी हैं।----मदन कश्यप
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