आत्मप्रवंचना से बचना कठिन तो है मगर बेहद जरूरी भी है।सार्त्र के अनुसार अपने यथार्थ का बोध प्राप्त करके ही आत्मप्रवंचना से बचा जा सकता है और यदि मनुष्य इस कष्टदायक बोधअपनी पूर्ण जिम्मेदारियों और तनहाई का मुकाबला करने का साहस पैदा कर ले तो वह न केवल इस कष्टदायक बोध से बाहर निकल आयेगा बल्कि उसमें मूल्य भी पैदा हो सकेंगे। यदि किसी को दुनिया निरर्थक और एब्सर्ड लगती हो तो मनुष्य खासकर एक लेखक को नये मूल्य की रचना और मनुष्य की आधारभूत संघर्षशीलता को रचने का हक हासिल है। और सभी सजग उपन्यासकार समय मिलते ही इसे हाथ से जाने नहीं देते। प्रत्येक साहित्यिक जन जीवन के प्रति समर्पित उपन्यासकार अपना प्रतिरोध दर्ज करना जरुरी समझता है और करता है।फूको कहते हैं कि जहां ताकत है वहीं उसका प्रतिरोध भी है।यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। और यह भी कि प्रतिरोध में विविध प्रकार के तत्व कार्यरत रहते हैं। मनुष्य की आत्मा फिर से प्रतिष्ठित होइसके लिए कुछ काम हुआ है कुछ बाकी है।यह किताब भी उस बड़े काम का एक हिस्सा हैं।जिसकी गुणग्राहकता हमारा हिंदी का पाठक वर्ग अच्छी तरह जानता है।
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